भावार्थ:
प्रथम अवस्था का साधक जब शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेता है, तब उसकी क्या दशा होती है, इसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।
श्रीमन्त परिवार केवल शुभ कर्मो को करने वाला होते है। उस परिवार के सदस्य शुद्ध आचरण करने वाले होते और वह योग आरूढ़ होते है। परमात्मा प्राप्ति के लिये वह प्रयास रत होते है। ऐसे वातावरण में जन्मा साधक योग साधना के लिये आकर्षित हो जाता है। पर्व संस्कारों के कारण वह प्रारम्भ से ही कामना-भोग से रहित होता है।
अर्जुन का प्रश्न था कि साधन में लगा हुआ शिथिल प्रयत्न वाला साधक अन्त समय में योग से विचलित हो जाता है, तो वह योग की संसिद्धि को प्राप्त न होकर किस गति को जाता है? अर्थात् उसका कहीं पतन तो नहीं हो जाता?
इसके उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जब योग का जिज्ञासु ही संसार के भोगों से ऊपर उठ जाता है, तो फिर योग भ्रष्ट के लिये तो कहना ही क्या है। अर्थात् उसके पतन की कोई शङ्का ही नहीं है। वह योग में प्रवृत्त हो चुका है, अतः उसका तो अवश्य उद्धार होगा ही।
यहाँ ‘योग का जिज्ञासु’ से अर्थ है कि जो अभी योगभ्रष्ट भी नहीं हुआ है और योगमें प्रवृत्त भी नहीं हुआ है; परन्तु जो योग-(समता-) को महत्त्व देता है और उसको प्राप्त करना चाहता है। योगका जिज्ञासु वह है, जो भोग और संग्रह को साधारण लोगों की तरह महत्त्व नहीं देता, प्रत्युत उनकी अपेक्षा करके योग को अधिक महत्त्व देता है। उसकी भोग और संग्रह की रुचि मिटी नहीं है, पर सिद्धान्त से योग को ही महत्त्व देता है। इसलिये वह योगारूढ़ तो नहीं हुआ है, पर योग का जिज्ञासु है, योग को प्राप्त करना चाहता है।
इसी विषयों को भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय २ श्लोक ४० में कहा है। समता (योग) प्राप्ति के लिये धर्म (समाज कल्याण) का थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भय से रक्षा कर लेता है अर्थात् कल्याण कर देता है। फिर जो योग में प्रवृत्त हो चुका है, उसका पतन कैसे हो सकता है? उसका तो कल्याण होगा ही, इसमें सन्देह नहीं है।
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