भावार्थ:
योग आरूढ़ साधक, जिसके भीतर समता प्राप्ति की उत्कण्ठा है, लगन है, उत्साह है, तत्परता है और वह योग का निरंतर अभ्यास करता है। ऐसा करने से जिसका चित शुद्ध हो गया है वह निश्चय ही परमगति को प्राप्त हो जाता है, फिर चाहे उसके अनेक जन्म ही क्यों न हो जाय।
इसका अर्थ यह नहीं है कि परमान्द की प्राप्ति में कई जन्म लगते है। अपितु इस का अर्थ है कि अगर साधक को परमान्द की प्राप्ति वर्तमान जन्म में नहीं होती, तो उसका प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता। अगले जन्म में वह वही से अपने योग सिद्धि की यात्रा आरम्भ करता है जहाँ से छोड़ा था।
मनुष्य अपने पूर्व जन्म में संचित संस्कारों के अनुसार स्थूल शरीर के द्वारा जगत् में कर्म करता है। ये वासनाएं ही उसके विचारों को दिशा प्रदान करती हैं और उन्हीं के अनुसार वर्तमान में कर्मों की योग्यता निश्चित होती है।
अन्त: करण (मन- बुद्धि) में स्थित इन वासनाओं को चित्त की अशुद्धि कहते हैं। इनके क्षय का उपाय हैं योग। योग अभ्यास को निरन्तर बनाये रखने से जब मन अलौकिक आन्तरिक शान्ति में स्थिर हो जाता है तब पुण्य वासनाएं भी समाप्त हो जाती हैं। वासना क्षय के साथ मन और अहंकार दोनों ही नष्ट हो जाते हैं और यही परम गति अथवा आत्म साक्षात्कार की स्थिति है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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