श्रीमद भगवद गीता : ४५

योग भ्रष्ट योगी एक या उससे अधिक जन्म में निश्चित ही परमगति को प्राप्त होता है।

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ।।६-४५।।

 

अनेक जन्मों में निरन्तर प्रयत्न करता हुआ, सभी विषमता, विकारों से मुक्त हो कर शुद्ध अन्तःकरण वाला, योग में सिद्ध हुआ परमगति को प्राप्त हो जाता है। ।।६-४५।।

भावार्थ:

योग आरूढ़ साधक, जिसके भीतर समता प्राप्ति की उत्कण्ठा है, लगन है, उत्साह है, तत्परता है और वह योग का निरंतर अभ्यास करता है। ऐसा करने से जिसका चित शुद्ध हो गया है वह निश्चय ही परमगति को प्राप्त हो जाता है,  फिर चाहे उसके अनेक जन्म ही क्यों न हो जाय।

इसका अर्थ यह नहीं है कि परमान्द की प्राप्ति में कई जन्म लगते है। अपितु इस का अर्थ है कि अगर साधक को परमान्द की प्राप्ति वर्तमान जन्म में नहीं होती, तो उसका प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता। अगले जन्म में वह वही से अपने योग सिद्धि की यात्रा आरम्भ करता है जहाँ से छोड़ा था।

मनुष्य अपने पूर्व जन्म में संचित संस्कारों के अनुसार स्थूल शरीर के द्वारा जगत् में कर्म करता है। ये वासनाएं ही उसके विचारों को दिशा प्रदान करती हैं और उन्हीं के अनुसार वर्तमान में कर्मों की योग्यता निश्चित होती है।

अन्त: करण (मन- बुद्धि) में स्थित इन वासनाओं को चित्त की अशुद्धि कहते हैं। इनके क्षय का उपाय हैं योग। योग अभ्यास को निरन्तर बनाये रखने से जब मन अलौकिक आन्तरिक शान्ति में स्थिर हो जाता है तब पुण्य वासनाएं भी समाप्त हो जाती हैं। वासना क्षय के साथ मन और अहंकार दोनों ही नष्ट हो जाते हैं और यही परम गति अथवा आत्म साक्षात्कार की स्थिति है।

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