भावार्थ:
पूर्व श्लोक (अध्याय ६ श्लोक ४६) में तप किस प्रकार का श्रेष्ठ है। ज्ञानी किस प्रकार का श्रेष्ठ है, और कर्म किस प्रकार के श्रेष्ठ है, इस का वर्णन हुआ है।
अन्ततः योग युक्त कौन है इस का वर्णन इस श्लोक में हुआ है।
जो परमात्मतत्व के अस्तित्व पर श्रद्धा और विश्वास करता है। अर्थात् जिसकी बुद्धि में परमात्मतत्व की ही सत्ता और महत्ता है, वह श्रद्धावान् है। श्रद्धावान् साधक के अन्तःकरण में केवल परमात्मतत्व का चिन्तन, मनन होता है। केवल परमात्मतत्व का चिन्तन होने से साधक में एकत्त्व भाव रहता है। श्रद्धावान्, एकत्त्व भाव से युक्त साधक अपने धर्म का पालन करता है। अर्थात कर्तव्य कर्म करता है।
और इस प्रकार का आचरण करने वाले साधक को योग युक्त कहा जाता है। योग में स्थित कहा जाता है।
‘मां भजते‘ का अर्थ है, केवल परमात्मतत्व (समाज कल्याण) के लिये कार्य करना।
‘मां’ पद परमात्मतत्व के लिये उपयोग हुआ है न कि सकार रूप श्रीकृष्ण के लिये। वैसे तो परमात्मतत्व और श्रीकृष्ण एक ही तत्व के वाचक है, परन्तु साधक को परमात्मतत्व ही समझना चाहिये। क्योकि शरीर रूप में भगवान श्रीकृष्ण के होने का कारण भी परमात्मतत्व है।
पुनः यहां ज्ञान की प्रखरता है ममता के त्याग से, भक्ति की प्रखरता है अहंता के त्याग से, ध्यान योग की प्रखरता है मन की स्थिरता से और समता की प्रखरता है कार्यों में सेवा भाव से।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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