भावार्थ:
जो मनुष्य इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को वश में कर लेता है वह स्वयं पर विजय प्राप्त कर लेता है। मनुष्य विजय प्राप्त कर लेता है – बन्धनों से, सुख-दुःख से।
क्योकि इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से अपना सम्बन्ध माना हुआ है, इसलिये अपने-आपसे अपने-आप को जितने का अर्थ है इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को वश में करना। जिसने संसार और संसार के पदार्थों के आश्रय का सर्वथा त्याग कर दिया है और सम भाव से अपने स्वरूप में स्थित हो गया ,है उसने अपने-आपको जीत लिया है। ऐसा करने से मनुष्य का कल्याण होता है। क्योंकि उसको परम शान्ति की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार जो स्वयं का कल्याण करे वह स्वयं का बन्धु है। क्योकि इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को वश में करने से अपना कल्याण होता है इसलिए आप ही अपना बन्धु हुए।
जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन, वैभव, राज्य, घर, पद, अधिकार आदि की अपने लिये आवश्यकता मानता है, वही ‘अनात्मा’ है। जो ‘अनात्मा’ होता है, वह शरीरादि प्राकृत पदार्थों के साथ ‘मैं ‘और ‘मेरा’-पन करके अपने साथ शत्रुताका बर्ताव करता है।
कारण कि इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि शत्रु रूप में मनुष्य को विकारों (राग- द्वेष, काम-क्रोध; सुख-दुःख) के बन्धन में रखती है। इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष, राग से उत्पन्न कामना, द्वेष से उत्पन्न क्रोध, कामना पूर्ति होने पर भोग में सुख, और कामना अपूर्ति या भोग पदार्थ के वियोग से दुःख, यह सब विकार है और बन्धन के कारण है।
जो मनुष्य को पतन की ओर ले जाये वह शत्रु ही है। इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को अपना मान कर, उनसे वशीभूत होकर अपना पतन करना, स्वयं के प्रति शत्रु की तरह बर्ताव करना है।
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