भावार्थ:
जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि किसी भी प्राकृत पदार्थका आश्रय अपनी कामना पूर्ति, भोग के लिये के लिये लेता, और उन प्राकृत पदार्थों के साथ अपना किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं जोड़ता, उसका नाम ‘जितात्मा’ है।
अध्याय २ श्लोक १४ में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि, जिस प्रकार शीत और उष्ण ऋतु आती जाती रहती है उसी प्रकार अनुकूल एवम प्रतिकूल परिस्थिति मनुष्य के जीवन में आती-जाती है। क्योंकि मनुष्य ने प्रकृति पदार्थ एवम शरीर से अपना सम्बन्ध मान रखा है, इसलिये उसको उन अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सुख-दुःख की अनुभुति होती रहती है। परन्तु यह सुख-दुःख अनित्ये है, चाहे मनुष्य प्रकृति पदार्थ एवम शरीर से अपना सम्बन्ध या नहीं।
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते है कि जो जितात्मा है, वह इन अनित्य सुख-दुःख रूपी विकार से रहित हो जाता है।और नित्य रहने वाले परम् शान्ति में स्थित हो जाता है।
मनुष्य जब शरीर के साथ सम्बन्ध मान कर उसमें ममता, अहंता करता है, तब उसमें मान-अपमान के विकार उत्पन्न होते हैं। जितात्मा होने से वह इस विकार से भी मुक्त हो जाता है।
पूर्व श्लोक अध्याय ६ श्लोक ६ और इस श्लोक में जिस विजय का वर्णन हुआ है, उसको प्राप्त करने से मनुष्य निर्विकार हो जाता है। क्योकि यह विकार अनित्य है, इसलिये इनको महत्व न देने पर, इन पर विजय सरलता से प्राप्त हो सकती है।
साथ ही भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि इन अनित्य विकारों का त्याग होने पर जो परमात्मा (आनन्द) की प्राप्ति होती है जो नित्य रहने वाली है।
अतः मनुष्य को योग साधना से इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को वश में कर परमात्मा (आनन्द) की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिये।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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