श्रीमद भगवद गीता : ०८

योग युक्त साधक के गुण – तत्व ज्ञानी, तृप्त, कूटस्थः, विजितेन्द्रियः, समबुद्धि।

 

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।

युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।६-८।। 

 

ज्ञान-विज्ञानसे युक्त, जिसका अन्तःकरण तृप्त है, जो कूटकी तरह निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टीके ढेले, पत्थर तथा स्वर्णमें समबुद्धिवाला है ऐसा योगी को युक्त कहा जाता है। ।।६-८।।

 

भावार्थ:

जिस साधक में निम्न सभी गुण सिद्ध है, वह साधक योग में स्थित है:

‘ज्ञान युक्त’ : तत्व ज्ञान, आत्म ज्ञान एवं प्रकृति विज्ञान को प्राप्त कर जिसका विवेक पूर्णतयः जागृत हो गया है। विवेक जागृत होने पर उसमें अहंता का पूर्णतया त्याग हो गया है। तत्व ज्ञानी कार्य, कारण और कर्ता, सभी में परमात्मतत्व देखता है।

‘तृप्त’ : मनुष्य को शरीर के सुख और आराम को लेकर अनेक प्रकार की इच्छा होती है। परन्तु जो तृप्त है उसको शरीर को लेकर कोई इच्छा नहीं होती। शरीर निर्वाह के लिये जो मिल जाय, जितना मिल जाय, उसी से वह तृप्त रहता है। जो मिला है उसका भोग नहीं करता। अध्याय ३ श्लोक १७ में तृप्त मनुष्य के क्या गुण होते है इसका वर्णन हुआ है।

‘कूटस्थः’: कूट (अहरन) एक लौह-पिण्ड होता है, जिसपर लोहा, सोना, चाँदी आदि अनेक रूपोंमें गढ़े जाते हैं, पर वह एकरूप ही रहता है। कूट के समान साधक के सामने तरह-तरहकी परिस्थितियाँ आने पर भी, वह कूटकी तरह ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है।

‘विजितेन्द्रियः’ जिस साधक ने समस्त इन्द्रियों को नियमित कर लिया है वह विजितेन्द्रियः है।

‘समबुद्धि’:  मिट्टी हो या पत्थर हो या स्वर्ण, इनकी प्राप्ति हो या अप्राप्ति, साधक के अन्तःकरण में किसी प्रकार की विषमता (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, आसक्ति) उत्तपन्न नहीं होती। जिस प्रकार अध्याय ५ श्लोक १८ में प्राणीओं में समबुद्धि रखने वाले साधक का वर्णन हुआ है। उसी प्रकार समबुद्धि युक्त साधक व्यवहार काल में पदार्थों को उनके गुणों के अनुरूप  प्रयोग करता है, परन्तु उसके अन्तःकरण में अलग-अलग पदार्थों को लेकर अलग-अलग भाव नहीं होते।

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