श्रीमद भगवद गीता : ३६

योग सिद्धि के लिये चंचल मन को सयंमित करना अनिवार्य है।

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ।।६-३६।।

 

असंयत मन के द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है, परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील साधक द्वारा उपायपूर्वक यत्न करने से योग सिद्धि संभव है, यह मेरा मत है। ।।६-३६।।

 

भावार्थ:

भगवान श्रीकृष्ण पूर्व श्लोक में स्वीकार करते है कि मन बहुत ही चंचल है और इसको सयंमित करना कठिन तो है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि असंयत मन से योग भी सिद्ध नहीं है।

मन की चंचलता का वर्णन अध्याय २ श्लोक ६० में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने किया है। परन्तु मन को संयमित करना और योग को प्राप्त होना असंभव नहीं है। उपायपूर्वक प्रयत्न करने से मन को संयमित किया जा सकता है।

और वह उपाय है ध्यान योग का अभ्यास. साधक जब कामना का त्याग कर देता है और उसके सभी कार्य अन्यों के सेवा हेतु होते है तो ध्यान योग से मन को संयमित सरलता के किया जा सकता है।

जब तक राग है, कामना है, तब तक मन को संयमित करना असंभव सा ही है। तात्पर्य है कि साधकके अन्तःकरणमें विषयभोगोंकी रुचि रहनेके कारण ही वह संयतात्मा नहीं हो पाता। इस लिए पूर्व श्लोक में वैराग्य के द्वारा सयंमित किया जा सकता है, ऐसा कहा है। विषय भोगों की रुचि का त्याग तभी होगा जब प्राप्त वस्तु अन्यों के सेवा में लगा दें।

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