श्रीमद भगवद गीता : २२

श्री भगवानुवाच

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।

न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ।।१४-२२।।

 

 

भगवान ने कहा: हे पाण्डव! (ज्ञानी पुरुष) प्रकाश, कार्य प्रवृत्त तथा मोह – इन सभी या एक या दो से प्रवृत्त हुआ गुणातीत मनुष्य इनसे द्वेष नहीं करता, और इनसे निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा नहीं करता। ।।१४-२२।।

 

भावार्थ:

 

मनुष्य है तो गुण है; गुण है तो उनका प्रभाव है। अध्याय ३ श्लोक ५ में भगवान श्री कृष्ण व्यक्त करते है कि गुणों के परवश हुआ मनुष्य विविध प्रकार की क्रिया करता ही रहता है। वृति अपना कार्य करेगी ही। जब जिस समय जिस गुण की प्रधानता होगी, उस समय उस गुण से सम्बन्धित वृति उत्पन्न होगी ही।

परन्तु गुणातीत योग स्थित साधक उन उत्पन्न वृति से राग-द्वेष नहीं करता।

सत्वगुण का कार्य सुख का अनुभव तो होगा, परन्तु गुणातीत साधक सुख के विषय के प्रति स्पृहा नहीं करता। बुद्धिं के कार्य में अहंता नहीं करता।

रजोगुण के प्रभाव में इन्द्रियों के विषय प्रिय तो लगेगे, परन्तु गुणातीत साधक उनमे राग नहीं करता। कर्मेन्द्रिय कार्य के लिये परवश होगी, परन्तु उनसे कार्य समाज कल्याण के लिये होगा।

तमोगुण के प्रभाव में मोह वश अविवेक पूर्ण कार्य होने पर गुणातीत साधक द्वेष नहीं करता, दुखी नहीं होता। उस समय केवल परमात्मा का चिंतन करता है।

अध्याय ३ श्लोक ३३ में भगवान श्री कृष्ण व्यक्त करते है कि ज्ञानी महापुरुष के भी कार्य उसकी अपनी प्रकृति के होते है। तब मूढ़ मनुष्य कियु हट करता है की मैं करता हूँ। गुणातीत के जो लक्षण होते है उन की साधना अगर साधक करता है तब साधक का सम्बन्ध स्वयं के शरीर से टूट जाता है।

 

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