भावार्थ:
मनुष्य है तो गुण है; गुण है तो उनका प्रभाव है। अध्याय ३ श्लोक ५ में भगवान श्री कृष्ण व्यक्त करते है कि गुणों के परवश हुआ मनुष्य विविध प्रकार की क्रिया करता ही रहता है। वृति अपना कार्य करेगी ही। जब जिस समय जिस गुण की प्रधानता होगी, उस समय उस गुण से सम्बन्धित वृति उत्पन्न होगी ही।
परन्तु गुणातीत योग स्थित साधक उन उत्पन्न वृति से राग-द्वेष नहीं करता।
सत्वगुण का कार्य सुख का अनुभव तो होगा, परन्तु गुणातीत साधक सुख के विषय के प्रति स्पृहा नहीं करता। बुद्धिं के कार्य में अहंता नहीं करता।
रजोगुण के प्रभाव में इन्द्रियों के विषय प्रिय तो लगेगे, परन्तु गुणातीत साधक उनमे राग नहीं करता। कर्मेन्द्रिय कार्य के लिये परवश होगी, परन्तु उनसे कार्य समाज कल्याण के लिये होगा।
तमोगुण के प्रभाव में मोह वश अविवेक पूर्ण कार्य होने पर गुणातीत साधक द्वेष नहीं करता, दुखी नहीं होता। उस समय केवल परमात्मा का चिंतन करता है।
अध्याय ३ श्लोक ३३ में भगवान श्री कृष्ण व्यक्त करते है कि ज्ञानी महापुरुष के भी कार्य उसकी अपनी प्रकृति के होते है। तब मूढ़ मनुष्य कियु हट करता है की मैं करता हूँ। गुणातीत के जो लक्षण होते है उन की साधना अगर साधक करता है तब साधक का सम्बन्ध स्वयं के शरीर से टूट जाता है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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