श्रीमद भगवद गीता : २०

ब्रह्म तत्वज्ञ, स्थिर बुद्धि वाला ब्रह्म में स्थित है।

 

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ।।५.२०।। 

 

जो प्रियको प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धिवाला, मूढ़तारहित तथा ब्रह्मको जाननेवाला मनुष्य ब्रह्ममें स्थित है। ||५-२०||

 

भावार्थ:

स्थिर बुद्धि वाले के क्या लक्षण होते है, इसका वर्णन अध्याय २ श्लोक ५५ से अध्याय २ श्लोक ६१ में विस्तार से हुआ है। उन्हीं लक्षणों में से मुख्य और संक्षेप में लक्षण का वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो प्रियको प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धिवाला है। पूर्व संस्कार के कारण प्राणी, पदार्थ और परिस्थिति में प्रियता अथवा अप्रियता रहती है। परन्तु जब साधक विचार पूर्वक प्रिय को प्राप्त कर हर्षित न हो और अप्रिय को प्राप्त कर उद्विग्न न हो, तब, प्राणी, पदार्थ और परिस्थिति में प्रिय-अप्रिय संस्कार भी नष्ट हो जाते है। और साधक निर्विकार हो जाता है।

शरीर-मन-बुद्धि को लेकर जो ममता, और अहंता है, वह मूढ़ता है। मूढ़ता के होने का कारण अध्याय ३ श्लोक २७ में विस्तार से दिया है। अतः जिसको तत्व (ब्रह्म) ज्ञान हो गया है और वह ममता, अहंता से रहित है। अर्थात मूढ़ता से रहित है।

इस प्रकार ब्रह्म को जानने के कारण, मूढ़ता रहित, और स्थिर बुद्धि वाला ब्रह्म में स्थित है, समता में स्थित है।

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