श्रीमद भगवद गीता : ०१-०२

अर्जुन उवाच

 किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।८-१।।

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।।८-२।।

 

अर्जुन ने कहा: हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत किसको कहा गया है? और अधिदैव किसको कहा जाता है? यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस देहमें कैसे है? हे मधूसूदन! नियतात्मा संयत चित्त वाले मनुष्य के द्वारा अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते हैं? ।।८-१ ।। ।।८-२।।

 

भावार्थ:

 

हे पुरुषोत्तम! यह ब्रह्म क्या है? अर्थात् ब्रह्म शब्द से क्या समझना चाहिये?

अध्यात्म क्या है?

कर्म क्या है?

आपने जो अधिभूत शब्द कहा है उसका क्या तात्पर्य है?

अधिदैव किसको कहा जाता है?

अधियज्ञ शब्द से किस प्रकार की क्रिया को लेना चाहिये।

हे मधुसूदन जो पुरुष वशीभूत अन्तःकरणवाले हैं अर्थात् जो संसारसे सर्वथा हटकर अनन्यभावसे केवल आपमें ही लगे हुए हैं उनके द्वारा अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते हैं अर्थात् वे आपके किस रूपको जानते हैं और किस प्रकारसे जानते हैं।

 

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