श्रीमद भगवद गीता : ०३

श्री भगवानुवाच

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।

भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।।८-३।।

 

श्रीभगवान् बोले:  परम अक्षर ब्रह्म है और स्वः का जो होनापन का भाव (शरीर से सम्बन्ध रहित) है, उसको अध्यात्म कहते हैं। विसर्ग एक से अनेक रूप होने का संकल्प (सृष्टिकी रचना) एवम भूतभावोद्भवकर (प्रकृतिकीसक्रिय अवस्था) को कर्म कहा जाता है। ।।८-३।।

 

भावार्थ:

ब्रह्म

ब्रह्म परमात्मतत्व है जो सम्पूर्ण सृष्टि में समान रूप से व्याप्त है। ब्रह्म सच्चिदानन्दघन अविनाशी निर्गुणनिराकार परमात्माका वाचक है। ध्वनि में वह ओमकार ॐ है। ब्रह्म वह अपरिवर्तनशील और अविनाशी तत्त्व है जो इस दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। वही आत्मरूप से शरीर मन और बुद्धि को चैतन्य प्रदान कर उनके जन्म से लेकर मरण तक के असंख्य परिवर्तनों को प्रकाशित करता है।

अध्यात्म

अन्त:करण में जब पूर्ण रूप से समता का भाव होता है, उस समय स्वयं के होनेपन का जो भाव होता है वह अध्यात्म भाव है। अध्यात्म भाव ही स्व: का शुद्ध चित भाव है। अन्त:करण में नित्य स्थित समता का भाव ही परब्रह्म का प्रकाशक तत्व है। समता भाव से ही परब्रह्म मनुष्य शरीर में व्यक्त होता है। अध्यात्म (समता) एक स्थिति है, जिसको प्राप्त करने का लक्ष्य मनुष्य जीवन का उदेश्य है।

प्रकृति पदार्थ से सम्बंध मान कर, उनमें राग- द्वेष करने से जो अन्य विषमता रूपी भाव उत्पन्न होते है वह परब्रह्म को प्रकाशित नहीं होने देते। इन विषमता रूपी भाव को महत्ता देना ही मनुष्य कि मूढ़ता है।

प्रकृति में  स्थावर और जङ्गम जितने भी प्राणी देखने में आते हैं, उनकी उत्पत्ति का जो बीज़ रूप है वह उन प्राणी से ही उत्पन्न होता है। वह बीज़ अपने अस्तित्व का त्याग करता है और उसमें से पुनः प्राणी उत्पन्न होता है और यह चक्र निरन्तर चलता रहता है।  बीज़ के अपने अस्तित्व का त्याग ही कर्म नामसे कहा जाता है।

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