श्रीमद भगवद गीता : ०४

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।८-४।।

 

हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! नश्वर वस्तु (पंचमहाभूत) अधिभूत कहते हैं, वह शरीररूप पुरुष अधिदैव है; और सृष्टि चक्र का गतिशील होना अधियज्ञ है। ।।८-४।।

 

भावार्थ:

पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश — इन पञ्चमहाभूतोंसे बनी प्रतिक्षण परिवर्तनशील और नाशवान् सृष्टिको अधिभूत कहते हैं। सम्पूर्ण दृश्यमान जड़ जगत् अधिभूत है। पञ्चमहाभूतों से बना मनुष्य (शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि) अधिभूत है।

चेतन तत्व जो शरीर और शरीर में हो नहीं क्रिया का प्रकाशक है वह अधिदैव है। पूर्व श्लोक में वर्णित कर्म (जन्म-मरण रूपी चक्र) का जो कारण है वह अधिदैव है।

शरीर में हो रही अनेक प्रकार की क्रिया, जन्म-मरण रूपी चक्र अधियज्ञ है। विषय रूपी आहुतियाँ इन्द्रियरूपी अग्नि में अर्पण की जाती हैं तब विषय का ज्ञान होता है।

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