श्रीमद भगवद गीता : १४

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ।।८-१४।।

 

हे पृथानन्दन! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ। ।।८-१४।।

भावार्थ:

जिसका चित्त भगवान्को छोड़कर किसी भी भोग भूमि में, किसी भी ऐश्वर्य में किञ्चिन्मात्र भी नहीं जाता; जिसके अन्तःकरणमें भगवान्के सिवाय अन्य किसीका कोई आश्रय नहीं है, महत्त्व नहीं है वह पुरुष अनन्य चित्तवाला है।  इस प्रकार का विचार जिस के चित में निरन्तर और दीर्घकाल तक (अन्त समय तक) बना रहता है और इस विचार के साथ ही वह मनुष्य धर्म का पालन करता है उसके लिये समता की प्राप्ति और समता में स्थित रहना सुलभ है।

समता की प्राप्ति ही परमात्मा, ब्रहा की प्राप्ति है। इस की स्पष्टता अध्याय ८ श्लोक ३ में हुई है।

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