श्रीमद भगवद गीता : १२-१३

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।८-१२।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।८-१३।।

 

(इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके और अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापित करके योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो साधक ‘ऊँ’ इस एक अक्षर ब्रह्मका उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। ।।८-१२।। ।।८-१३।।

भावार्थ:

पूर्व श्लोक में प्राण त्याग की विधि का वर्णन हुआ है, उसको और विशेषता से बताने का संकल्प इस श्लोक में हुआ है और उसकी महिमा  वर्णन हुआ है।

ध्यान अभ्यास किस प्रकार किया जाता है और उसकी सिद्धि के लक्षण क्या है इसका वर्णन अध्याय ६ श्लोक १० से  अध्याय ६ श्लोक १७ तक हुआ है। ध्यान अभ्यास में सिद्ध हुआ साधक अन्त समय में प्राण का त्याग किस प्रकार करे इसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

इन्द्रियों के द्वारा मन को संयमित करके इन्द्रिय अवयव स्थूल शरीर में स्थित हैं। श्रोत्र त्वचा चक्षु जिह्वा और घ्राणेन्द्रिय (नाक) ये वे पाँच द्वार हैं जिनके माध्यम से बाह्य विषयों की संवेदनाएं मन में प्रवेश करके उसे विक्षुब्ध करती हैं। विवेक और वैराग्य के द्वारा इन इन्द्रिय द्वारों को अवरुद्ध अथवा संयमित करना प्रथम साधना है जिसके बिना ध्यान में प्रवेश नहीं हो सकता। इनके द्वारा न केवल बाह्य विषय मन में प्रवेश करते हैं वरन् इन्हीं के माध्यम से मन बाह्य विषयों में विचरण एवं भ्रमण करता है।

प्राणशक्ति को मस्तक अर्थात् बुद्धि में स्थापित करने का अर्थ है बुद्धि को सभी निम्न स्तरीय विचारों एवं वस्तुओं से निवृत्त करना। विषय ग्रहण आदि के द्वारा बुद्धि का इनसे तादात्म्य रहता है। सतत आत्मानुसंधान की प्रक्रिया से बुद्धि को विषयों से परावृत्त किया जा सकता है।

इस प्रकार योगधारणामें स्थित हो कर एक अक्षर ब्रह्म ँ़ (प्रणव) का मानसिक उच्चारण करे और निर्गुण-निराकार परम अक्षर ब्रह्म का स्मरण करते हुए दसवें द्वारसे प्राणों को छोड़े। ऐसा करने से साधक निर्गुण-निराकार परमात्माको प्राप्त होता है। मोक्ष को प्राप्त होता है।

यहाँ पुनः स्मरण करने का विषय है कि ध्यान अभ्यास योग एक अलग योग पद्धिति नहीं है अपितु पूर्ण योग साधना का एक अंग है।

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