श्रीमद भगवद गीता : १९

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ।।८-१९।।

 

हे पार्थ! वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृतिके परवश हुआ दिनके समय उत्पन्न होता है और रात्रिके समय लीन होता है। ।।८-१९।।

 

भावार्थ:

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि जितना भी दृश्यमान संसार है और स्वयं मनुष्य की उत्पति और विनाश एक निश्चित काल अवधि में होता रहता है। यह काल अवधि अलग-अलग प्राणी-पदार्थ के लिये अलग-अलग है।

भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट करते है कि इस उत्पति-विनाश का कारण परमात्मतत्व की प्रकृति है और मनुष्य का इस में कोई भी वश नहीं है।

मनुष्य प्रकृति की वस्तु को अपना मानेगा (आसक्ति रखेगा), तो वह उस वस्तुके परवश, पराधीन होगा। प्राकृत पदार्थों को मनुष्य जितना ही अधिक ग्रहण करेगा, उतना ही वह महान् परतन्त्र बनता चला जायगा। इस प्रकार प्रकृतिके परवश होकर उसको प्राप्त करने के लिये कार्य करना और प्राप्त होने पर उसका भोग भोगना- इस चक्र में बंधा रहेगा। परन्तु जब प्रकृतिजन्य पदार्थोंकी परवशता मिट जाती है अर्थात् प्रकृतिके सम्बन्धसे सर्वथा रहित अपने शुद्ध स्वरूपका बोध हो जाता है, तो फिर मनुष्य कर्म और भोग के चक्र में नहीं बांधता और व्यथित नहीं होता।

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