श्रीमद भगवद गीता : २३

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।८-२३।।

 

हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! जिस काल अर्थात् मार्गमें शरीर छोड़कर गये हुए योगी अनावृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर नहीं आते और (जिस मार्गमें गये हुए) आवृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर आते हैं, उस कालको अर्थात् दोनों मार्गोंको मैं कहूँगा। ।।८-२३।।

 

भावार्थ:

जो सांसारिक पदार्थों और भोगोंसे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख हो गये हैं, वे अनावृत ज्ञानवाले हैं अर्थात् उनका ज्ञान (विवेक) ढका हुआ नहीं है, प्रत्युत जाग्रत् है। इसलिये वे अनावृत्तिके मार्गमें जाते हैं, जहाँसे फिर लौटना नहीं पड़ता। निष्कामभाव होनेसे उनके मार्ग में प्रकाश अर्थात् विवेक की मुख्यता रहती है।

सांसारिक पदार्थों और भोगोंमें आसक्ति, कामना और ममता रखनेवाले जो पुरुष अपने स्वरूपसे तथा परमात्मा से विमुख हो गये हैं, वे आवृत ज्ञानवाले हैं अर्थात् उनका ज्ञान (विवेक) ढका हुआ है। इसलिये वे आवृत्तिके मार्गमें जाते हैं, जहाँ से फिर लौटकर जन्म-मरण के चक्रमें आना पड़ता है। सकामभाव होनेसे उनके मार्ग में अन्धकार अर्थात् अविवेक की मुख्यता रहती है।

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