श्रीमद भगवद गीता : ०६

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।८-६।।

 

हे कौन्तेय! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है। ।।८-६।।

 

भावार्थ:

जो मनुष्य योग आरूढ़ है और अन्त समय मे उसका मन चंचल होने पर भी उसका जन्म ज्ञान वान योगियों के कुल में होता है। ऐसा वर्णन अध्याय ६ श्लोक ४२ में हुआ है।

परन्तु जो मनुष्य योग आरूढ़ नहीं है और संसार में आसक्त है, उसकी मृत्यु उपरान्त क्या गति होती है,  इसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

अन्तकाल में जिस किसी भाव का स्मरण करते हुए जीव देह को त्यागता है वह उसी भाव को प्राप्त होता है चाहे वह पशुत्व का भाव हो अथवा देवत्व का।

अन्तकाल में जिस किसी विषय का चिन्तन होता है, शरीर छोड़ने के बाद वह जीव जब तक दूसरा शरीर धारण नहीं कर लेता तब तक वह उसी भावसे भावित रहता है अर्थात् अन्तकाल का चिन्तन (स्मरण) वैसा ही स्थायी बना रहता है। अन्तकाल के उस चिन्तन के अनुसार ही उसका मानसिक शरीर बनता है और मानसिक शरीर के अनुसार ही वह दूसरा शरीर धारण करता है। कारण कि अन्तकाल के चिन्तन को बदलने के लिये वहाँ कोई मौका नहीं है शक्ति नहीं है और बदलने की स्वतन्त्रता भी नहीं है।

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