श्रीमद भगवद गीता : ०७

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।।८-७।।

 

 

इसलिए, तुम सब काल में निरन्तर मेरा स्मरण करो और युद्ध भी कर। मेरेमें मन और बुद्धि अर्पित करने वाले तुम निःसन्देह मेरेको ही प्राप्त होंगे। ।।८-७।।

 

भावार्थ:

अध्याय ८ श्लोक २ में अर्जुन ने प्रश्न किया था कि अन्त समय में मनुष्य किस को प्राप्त होता है। उसके उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय ८ श्लोक ५ एवं अध्याय ८ श्लोक ६ में मनुष्य किस को प्राप्त होता है इसका वर्णन किया है।

परन्तु इस श्लोक में स्वयं से मानो कहते है कि, हे अर्जुन! तुम भविष्य की चिंता का त्याग करके केवल वर्तमान की बात करो।

वर्तमान में रहते हुए मनुष्य अपने कर्तव्यों को करे और जब कर्तव्य प्राप्त न हो तब केवल परमात्मा का ही चिंतन करे। मन और बुद्धि को सांसारिक विषयों में और भविष्य में न लगा कर, प्राप्त कर्तव्य और परमात्मा में ही लगाये। कार्य का फल और योग की सिद्धि परमात्मा पर छोड़ दे। कार्य का फल जो होगा सो होगा, मनुष्य को उससे सम्बन्ध नहीं मानना है।

विषय अगर परमात्मा प्राप्ति का हो तो, अध्याय ६ श्लोक २५ में  भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, शनै: शनै: और धैर्य युक्त बुद्धि से अभ्यास करने से योग की सिद्धि  होती है।

योग सिद्धि में सबसे अधिक बाधा मन की चंचलता है। अतः भगवान श्रीकृष्ण अध्याय ६ श्लोक ३५ में कहते है कि, अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चंचल मन सयंमित हो जाता है।

योग सिद्धि के लिये भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में पुनः विश्वास दिलाते है कि, मनुष्य  का जब चिन्तन केवल परमात्मा का होगा, और कार्य केवल प्रकृति-समाज कल्याण के लिये होंगे और प्रकृति से प्राप्त सामग्री परमात्मा को अर्पण होगी, तो परमात्मा की प्राप्ति होना निश्चित है। इस में कोई सन्देह नहीं है। मृत्यु काल में क्या! मनुष्य अपने जीवन काल में ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।

 

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