श्रीमद भगवद गीता : ०८

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।।८-८।।

 

हे पार्थ! अभ्यासयोग से युक्त और अन्यका चिन्तन न करनेवाले चित्तसे परम दिव्य पुरुषका चिन्तन करता हुआ उसीको प्राप्त हो जाता है। ।।८-८।।

 

भावार्थ:

विषय अगर परमात्मा प्राप्ति का हो तो, अध्याय ६ श्लोक २५ में  भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, शनै: शनै: और धैर्य युक्त बुद्धि से अभ्यास करने से योग की सिद्धि  होती है।

योग सिद्धि में सबसे अधिक बाधा मन की चंचलता है। अतः भगवान श्रीकृष्ण अध्याय ६ श्लोक ३५ में कहते है कि, अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चंचल मन सयंमित हो जाता है।

अतः इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने अभ्यास पर बल दिया है, और कहा है कि साधक अभ्यास से योग युक्त हो जाता है।

अभ्यास किस का करना है, इसके लिये भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते है –

साधक का लक्ष्य केवल परमात्मा प्राप्ति का हो, अन्य किसी सांसारिक विषय का न हो। अर्थात मन द्वारा केवल परमात्मा का चिन्तन हो, अन्य किसी सांसारिक विषय का नहीं।

साधक का लक्ष्य केवल परमात्मा प्राप्ति का होने से तात्पर्य है की, शरीर से उसके कार्य समाज कल्याण के हो, कर्तव्य के हो और मन से चिन्तन परमात्मा का हो।

इस प्रकार जीवन काल में निरन्तर योग का अभ्यास करने से साधक केवल परमात्मा का चिन्तन करने में अभ्यस्त हो जाता है। तब साधक सांसारिक विषयों का स्वतः ही चिन्तन नहीं करता। ऐसा करने से साधक अपने जीवन काल में ही परम दिव्य पुरुष (परमान्द) को प्राप्त रहता है।

और अन्त समय में केवल परम दिव्य पुरुष (परमात्मा) का चिन्तन करता हुआ, आंनद चित होकर स्वयं से शरीर का त्याग करता है।

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