श्रीमद भगवद गीता : ०९

कविं पुराणमनुशासितार

मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप

मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।८-९।।

 

जो सर्वज्ञ, पुरातन, सबके नियन्ता, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अचिन्त्यरूप, सूर्य के समान प्रकाश रूप और अज्ञानसे अत्यन्त परे- ऐसे अचिन्त्य स्वरूपका चिन्तन करता है। ।।८-९।।

भावार्थ:

श्लोक में पुनः परमात्मतत्व की विशेषता का वर्णन किया है जो की वास्तव में शब्दों से व्यक्त किया नहीं जा सकता। पुनः संसार का चिन्तन का त्याग कर केवल परमात्मतत्व का चिन्तन करने को बल दिया है।

हम देखते हैं तो नेत्रोंसे देखते हैं। नेत्रोंके ऊपर मन शासन करता है, मनके ऊपर बुद्धि और बुद्धिके ऊपर ‘अहम्’ शासन करता है तथा ‘अहम्’ के ऊपर भी जो शासन करता है, जो सबका आश्रय, प्रकाशक और प्रेरक है, वह (परमात्मतत्व) ‘अनुशासिता’ है।

परमात्मा परमाणुसे भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं। आज का वैज्ञानिक परमाणु से भी कुछ सूक्षम है ऐसा मानता है, परन्तु उसको शोध दुवारा जान नहीं पाया है।  और जाना भीं जा सकता।

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