श्रीमद भगवद गीता : अध्याय ९

०७ - ११ प्राणी की उत्त्पति के विज्ञान का वर्णन

।।९-७।। हे कुन्तीनन्दन! कल्पोंका क्षय होनेपर सम्पूर्ण प्राणी अपनी मूल प्रकृति को प्राप्त होते हैं और उसी बीज रूपी मूल प्रकृति से उनकी रचना होती है।
।।९-८।। प्रकृतिके वशमें होनेसे परतन्त्र हुए यह सम्पूर्ण प्राणि समुदाय अपनी प्रकृति के वश हो कर बीज रूप में से बार-बार उत्त्पति होती है।
।।९-९।। हे धनञ्जय! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मों में अनासक्त और उदासीन की तरह रहते हुए मेरे को वे कर्म नहीं बाँधते।
।।९-१०।। प्रकृति मेरी अध्यक्षता में सम्पूर्ण चराचर जगत् को रचती है। हे कुन्तीनन्दन! इसी हेतुसे जगत् का विविध प्रकारसे परिवर्तन होता है।
।।९-११।। मूर्खलोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वररूप परमभावको न जानते हुए मुझे मनुष्य शरीर के आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।

१२ - १५ आसुरी और देवी प्रकृति वाले मनुष्यों की विशेषता और उपासना करने के प्रकार

।।९-१२।। जिनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान सत्-फल देनेवाले नहीं होते, ऐसे अविवेकी मनुष्य आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेते हैं।
।।९-१३।। परन्तु हे पृथानन्दन! दैवी प्रकृतिके आश्रित अनन्यमनवाले महात्मालोग मुझे सम्पूर्ण प्राणियों का आदि और अविनाशी समझकर मेरा भजन करते हैं।
।।९-१४।। नित्य- (मेरे में) युक्त मनुष्य दृढ़व्रती होकर लगनपूर्वक साधना में लगे हुए और भक्तिपूर्वक कीर्तन करते हुए तथा नमस्कार करते हुये निरन्तर मेरी उपासना करते हैं।
।।९-१५।। दूसरे साधक ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे (अभेद-भावसे) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे कई साधक अपनेको पृथक् मानकर चारों तरफ मुखवाले मेरे विराट्ररुपकी अर्थात् संसारको मेरा विराट्ररुप मानकर (सेव्य-सेवकभावसे) मेरी अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं।

१६ - १९ कर्त्ता, कार्य, कारण और उपकरण में परमात्मतत्व के व्यापकता और एकरूप का वर्णन

२० - २५ सकाम और निष्काम मनुष्य के कार्य और कार्य के फल का वर्णन

।।९-२०।। जो पाप रहित मनुष्य सकाम भाव से वेदत्रयी में कहे हुए यज्ञों के द्वारा देवताओं का पूजन करने वाले और सोम (यज्ञ शेष) को ग्रहण करने वाले स्वर्ग प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं, वे पुण्य के फल स्वरूप स्वर्ग में देवताओं से प्राप्त दिव्य भोगों को भोगते हैं।
।।९-२१।। स्वर्ग लोक के भोगों को भोगने पर मनुष्य के पुण्य कर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं और वह पुनः मृत्युलोक में आ जाता हैं। इस प्रकार भोगों की कामना करने वाले तीनों वेदों में कहे हुए धर्म का पालन करते हुए भी आवागमन को प्राप्त होते हैं।
।।९-२२।। जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरेमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
।।९-२३।। हे कुन्तीनन्दन! जो भी मनुष्य श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी अविधिपूर्वक मुझे ही पूजते हैं।
।।९-२४।। क्योंकि मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी हूँ; परन्तु वे मेरेको तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।
।।९-२५।। (सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोड़नेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

२९ - ३४ पूर्व में किसी भी प्रकार का आचरण करने वाला योग साधना करने पर परमात्मा को प्राप्त है।

।।९-२९।। मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम हूँ। उन प्राणियोंमें न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ।
।।९-३०।। यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, तो वह भी साधु मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है।
।।९-३१।। हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त का विनाश (पतन) नहीं होता।
।।९-३२।। हे पार्थ! पाप का (योनयः) कारण, चाहे स्त्री (काम व्रती) हो, वश्या (आर्थिक) हो, अथवा शूद्र (समाजिक) हो; किसी प्रकार का पापी भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।
।।९-३३।। पुण्यशील ब्राह्मण और राजर्षि (ऋषि श्रेष्ठ) भक्तजन तो परम गति को प्राप्त होते ही हैं; (इसलिए) इस अनित्य सुखलोक का त्याग कर तुम भक्तिपूर्वक मेरा भजन करो।
।।९-३४।। (तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त हो जाओगे। 

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