भावार्थ:
जिसकी सत्ता-स्फूर्ति पाकर प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना होती है, चरअचर, स्थावर-जङ्गम प्राणी पैदा होते है; जो प्रकृति और उसके कार्यमात्र का संचालक, प्रवर्तक, शासक और संरक्षक का कारण है, उसको भूतमहेश्वररूप (संसार का महान ईश्वर) पद से व्यक्त किया है।
मनुष्य, प्रकृति में जो भी क्रिया हो रही है उसके पीछे किसी प्रकृति पदार्थ को कारण देखता है। प्रकृति में जितने भी प्रकार के प्राणी है उनमें वह स्वयं को सबसे बड़ा कर्ता मानता है। मनुष्य सृष्टि में हो रही विभिन प्रकार की क्रियाओं का कर्त्ता का आकार स्वयं मनुष्य के समान मानता है। वह मूढ़ यह जान नहीं पाता कि सृष्टि जो क्रियाशील जान पड़ती है उसके पीछे एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति है, ऊर्जा है जो परमात्मतत्व से प्राप्त है जो निराकार, निर्गुण, अव्यक्त एवम अकर्ता है।
मूढ़लोग परमात्मतत्व को न जानकर परमात्मतत्व को मनुष्य शरीर के आश्रित (शरण) मानते हैं अर्थात् उनको होना तो चाहिये परमात्मतत्व के शरण, पर मानते हैं मनुष्य शरीर के शरण! यही बात भगवान ने अध्याय ७ श्लोक २४ से अध्याय ७ श्लोक २५ में कही है कि बुद्धिहीन लोग मेरे अज-अविनाशी परमभाव को न जानते हुए मेरे को साधारण मनुष्य मानते हैं।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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