भावार्थ:
पूर्व श्लोक में जो मूढ़ मनुष्य का वर्णन हुआ है उसके कार्य किस प्रकार के होते है, उसका वर्णन हुआ है।
‘मोघाशाः’ – मनुष्य की एक मात्र कामना स्वयं और प्रकृति के कल्याण की न हो कर अनेक कामनाएँ नाशवान् और परिवर्तनशील प्रकृति पदार्थ की होती है, वह व्यर्थ की कामनाएँ है।
‘मोघकर्माणः’ – जिनके कार्य कामना पूर्ति, भोग, संग्रह के लिये होते है वह सब व्यर्थ के कार्य है।
‘मोघज्ञाना’ – जिन मनुष्य केवल इस बात का हो कि कामना पूर्ति किस प्रकार को, प्रकृति पदार्थ का भोग और संग्रह अधिक से अधिक किस प्रकार हो, अन्यों को कुछ प्राप्त न हो और प्रकृति का सारा सुख स्वयं को ही प्राप्त हो – इस प्रकार ज्ञान होना व्यर्थ है।
ऐसे अविवेकी मनुष्य जिनकी कामना, ज्ञान और क्रिया, व्यर्थ की है, (संसार का कल्याण करने वाली नहीं है) वह आसुरी, राक्षसी, मोहिनी स्वभाव वाले, आसुरी, राक्षसी, मोहिनी प्रवृति वाले कार्य ही करते है।
जो मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने में, अपनी कामना-पूर्ति करने में, अपने प्राणोंका पोषण करनेमें ही लगे रहते हैं, दूसरों को कितना दुःख हो रहा है, दूसरों का कितना नुकसान हो रहा है, इसकी परवाह ही नहीं करते, वे आसुरी स्वभाव वाले होते हैं।
जिनके स्वार्थ में, कामना-पूर्ति में बाधा लग जाती है, उनको गुस्सा आ जाता है और गुस्से में आकर वे अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये दूसरों का नुकसान कर देते हैं, दूसरों का नाश कर देते हैं, वे ‘राक्षसी’ स्वभाव वाले होते हैं।
जिसमें अपना न स्वार्थ है, न परमार्थ है और न वैर है, फिर भी बिना किसी कारणके जो दूसरोंका नुकसान कर देते हैं, दूसरों को कष्ट देते हैं (जैसे, उड़ते हुए पक्षी को गोली मार दी, सोते हुए कुत्ते को लाठी मार दी और फिर राजी हो गये), वे मोहिनी स्वभाव वाले होते हैं।
अध्याय ३ श्लोक १२ में इसी प्रकार के लोग जो प्रकृति से प्राप्त हुई सामग्री को दूसरों की सेवामें लगाये बिना स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह निश्चय ही चोर है – ऐसा कहा है।
जिसके समस्त कार्य स्वयं के भोग के लिये होते वह पाप को पकाते है और पाप को ही खाते है – ऐसा अध्याय ३ श्लोक १३ में वर्णन हुआ है।
श्लोकों से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का आचरण किस प्रकार का हो।
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