श्रीमद भगवद गीता : १३

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।९-१३।।

 

परन्तु हे पृथानन्दन! दैवी प्रकृतिके आश्रित अनन्यमनवाले महात्मालोग मुझे सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी समझकर मेरा भजन करते हैं। ।।९-१३।।

 

भावार्थ:

दैवी सम्पत्तिके गुण वाले साधक का आचरण किस प्रकार का होता है, उसका वर्णन अध्याय १६ श्लोक १ से अध्याय १६ श्लोक ३ में हुआ है।

दैवी सम्पत्ति के गुण वाले साधक, जिसके मन में परमात्मा से अन्य कोई और विचार नहीं है उनको अनन्यमन वाले पद से कहा है। जो ज्ञानी समस्त प्राणियों की उत्पति और क्रियाओं का कारण अविनाशी परमात्मतत्व को मानता है, ऐसा महात्मा केवल प्रकृत्ति-समाज के कल्याण के लिए ही कार्य करते है।

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