श्रीमद भगवद गीता : १४

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।९-१४।।

 

नित्य- (मेरे में) युक्त मनुष्य दृढ़व्रती होकर लगनपूर्वक साधना में लगे हुए और भक्तिपूर्वक कीर्तन करते हुए तथा नमस्कार करते हुये निरन्तर मेरी उपासना करते हैं। ।।९-१४।।

 

भावार्थ:

समता प्राप्ति का दृढ़ निश्चय केवल एक समय का नहीं है, अपितु इसका विचार बुद्धि में नित्य धारण किये रखना होता है, अन्यथा मनुष्य शीघ्र ही संसारिक भोगों और संग्रह की ओर आकर्षित हो जाता है।

अतः समता युक्त योगी निरन्तर समता की साधना में लगा हुआ सभी कार्य भगवत कृपा से हो रहे है ऐसे भाव से साथ अपने मनुष्य धर्म का पालन करता है। स्वयं के शरीर में हो रही क्रिया (खाना-पीना, सोना-जगना तथा सांसारिक क्रिया) का कारण भी परमात्मतत्व है जो इस शरीर में व्याप्त है इस प्रसन्नचित विचार के साथ मन को केवल परमात्मा में लगाता है।

अहंता का त्याग करना और सभी कार्यों और क्रिया का कारण परमात्मतत्व है, ऐसी श्रद्धा रखना भक्ति है।

समस्त प्राणियों में और स्वयं में जो एकरूप से केवल परमात्मतत्व व्याप्त है, उसका अभिनन्दन करना, – नमस्कार है।

समस्त प्रकृति-संसार में केवल परमात्मतत्व ही व्याप्त है और प्रकृति में हो रही क्रिया और पदार्थ का कारण परमात्मतत्व ही है। इस विचार के साथ परमात्मा से प्राप्त शरीर को प्रकृति-संसार के कल्याण के लिये सेवा में लगाना कीर्तन है।

अन्य समस्त संसारिक भावों, वासनाओं का त्याग कर, मन में केवल परमात्मा का भाव रखना उपासना है।

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