श्रीमद भगवद गीता : १९

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।९-१९।।

 

 

हे अर्जुन! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, जलको ग्रहण करता हूँ और फिर उस जलको वर्षारूपसे बरसा देता हूँ। (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ। ।।९-१९।।

 

भावार्थ:

वर्षा होने का जो विज्ञान है, कारण है इसका वर्णन इस श्लोक में किया है।

जो व्यक्त है, साकार है, वह भी परमात्मतत्व है। और जो मूल अव्यक्त तत्व, साकार-व्यक्त के होने का कारण है, वह भी परमात्मतत्व है। जीवन और मृत्यु का कारण भी परमात्मतत्व ही है।

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