श्रीमद भगवद गीता : ०२

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।९-२।।

 

यह सम्पूर्ण विद्याओं का राजा है और अत्यन्त गोपनीय है। यह अति पवित्र तथा अतिश्रेष्ठ है और इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है और इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है। ।।९-२।।

 

भावार्थ:

इस श्लोक में आगे कहे जाने वाले विषय की विशेषता का वर्णन किया है।

यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्ण विद्याओंका राजा है; क्योंकि इसको ठीक तरहसे जान लेनेके बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता।

संसार में रहस्यकी जितनी गुप्त बाते हैं, उन सब बातों का यह राजा है।

इस विद्याके समान पवित्र करनेवाली दूसरी कोई विद्या है ही नहीं। यह सर्वश्रेष्ठ है।

इसका फल प्रत्यक्ष है। जो मनुष्य इस बातको जितना जानेगा, वह उतना ही अपने में विलक्षणता का अनुभव करेगा। इस बातको  जानते ही परमगति प्राप्त हो जाय–यह इसका प्रत्यक्ष फल है।

यह धर्ममय है। परमात्मा का लक्ष्य होने पर निष्काम भावपूर्वक जितने भी कर्तव्य-कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब इस धर्मके अन्तर्गत आ जाते हैं। अतः यह विज्ञानसहित ज्ञान सभी धर्मोंसे परिपूर्ण है।

इसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती, इसलिये यह अविनाशी है। यह करने में बहुत सुगम है।

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