श्रीमद भगवद गीता : २०

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा

यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक

मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।९-२०।।

 

 

जो पाप रहित मनुष्य सकाम भाव से वेदत्रयी में कहे हुए यज्ञों के द्वारा देवताओं का पूजन करने वाले और सोम (यज्ञ शेष) को ग्रहण करने वाले स्वर्ग प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं, वे पुण्य के फल स्वरूप स्वर्ग में देवताओं से प्राप्त दिव्य भोगों को भोगते हैं। ।।९-२०।।

 

भावार्थ:

त्रैविद्या: ऋक्, यजु और साम :- इन तीन वेदों का वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

मनुष्य को जो भी प्रकृति, संसार से प्राप्त होता है, उसको पुनः प्रकृति, संसार के कल्याण में लगाने वाला पाप रहित है। जो प्राप्त सामग्री का भोग करता है, वह पापी है।

यज्ञ: सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ में जो मनुष्य अपने कर्तव्य की आहुति देता है, वह उन कर्त्तव्यों के द्वारा परमात्मा का पूजन करता है।

सोमपाः मनुष्य जब समाज कल्याण के लिए यज्ञ (संसारिक कार्य) करता है, तब उसको प्रकृत्ति से फल की प्राप्ति होती है। पाप रहित मनुष्य उस फल का भोग न करके पुनः उस फल को समाज कल्याण के लिए लगा देता है।  तब जो शेष रहता है वह सोम है। और शेष को ग्रहण करना सोमपाः है।

अध्याय ३ श्लोक १३ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि जो मनुष्य यज्ञ शेष को ग्रहण करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। यज्ञ शेष को ग्रहण करने के लिये यहा सोमपाः पद आया है।

स्वर्ग प्राप्ति की कामना से मनुष्य वेदों में दिये हुये यज्ञों में अपनी कर्तव्यों की आहूति देता है, तप करता है और केवल सोम को ग्रहण करता है। ऐसा करने से उसके पाप नष्ट हो जाते है और उसको पुन्य फल स्वरूप स्वर्ग की प्राप्ति होती है। और वह स्वर्ग के आलौकिक भोगों को भोक्ता है।

स्वर्ग की प्राप्ति का अर्थ है,  उन परिस्थिति को प्राप्त होना जो निरन्तर रूप से मनुष्य के अनुकूल हो। और मनुष्य जिस पदार्थ-परिस्थिति की कामना करे वह उसको प्राप्त हो।

 

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