श्रीमद भगवद गीता : २१

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं

क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।

एव त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना

गतागतं कामकामा लभन्ते।।९-२१।। 

 

स्वर्ग लोक के भोगों को भोगने पर मनुष्य के पुण्य कर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं और वह पुनः मृत्युलोक में आ जाता हैं। इस प्रकार भोगों की कामना करने वाले तीनों वेदों में कहे हुए धर्म का पालन करते हुए भी आवागमन को प्राप्त होते हैं। ।।९-२१।।

 

भावार्थ:

पूर्व श्लोक में वर्णन हुआ है कि स्वर्ग की कामना पूर्ति के लिये यज्ञ का अनुष्ठान करने पर और धर्म का पालन करने पर मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

अब इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि स्वर्ग के भोग भोगने से मनुष्य के पुण्य क्षीण हो जाते हैं।

प्रश्न उठता है कि मनुष्य के पुण्य क्षीण क्यों होते है?

मनुष्य जब प्रकृति से प्राप्त पदार्थ का केवल स्वयं के लिये भोग करता है तब वह पाप है। स्वर्ग में जब उसको आलौकिक पदार्थ मिलते है और वह उनका भोग करता है, तब वह पापों का संग्रह करता है।अध्याय ३ श्लोक १६ में  भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो मनुष्य भोगों में रमण करता है, उसका कार्य पापमय होता है।  इस कारण उसके पूर्व में किये हुए पुण्य नष्ट हो जाते है और अर्जित किये हुए पुण्य क्षीण हो जाते हैं।

पुण्य क्षीण होने पर मनुष्य पुनः मृत्यु लोक को प्राप्त होता है और सुख-दुख के बन्धन में बंधता है।

अतः इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट करते की मनुष्य जब तक कामना करता रहेगा तब तक वह जन्म-मृत्यु, सुख-दुख में बंधा रहेगा।

इस श्लोक का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य को कर्तव्य नहीं करने चाहिये। इसका अर्थ है कि मनुष्य को किसी प्रकार की कामना नहीं करनी चाहिये – न तो मृत्यु लोक के भोगों की और न ही स्वर्ग लोक के भोगों की।

 

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