श्रीमद भगवद गीता : २२

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।९-२२।।

 

जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरेमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। ।।९-२२।।

 

भावार्थ:

जो मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि में ममता, अहंता और आसक्ति का त्याग करके, केवल परमात्मा की महत्ता रखता हैं, वह परमात्मा का अनन्य भक्त हैं।

अनन्य भक्त संसार के विषयों का चिन्तन नहीं करता। वह केवल परमात्मा का ही चिन्तन करता है।

कर्त्तव्यों का पालन करना और जीवन निर्वाह के लिये जो प्राप्त हो उसको परमात्मा का प्रसाद मान कर ग्रहण करना, परमात्मा की उपासना है।

अनन्य भक्त होना, परमात्मा का चिन्तन करना और उनकी उपासना करना, यह सब योग की साधना है। योग साधना का फल है:

  1. समता की प्राप्ति
  2. परम आनंद की प्राप्ति
  3. मोक्ष की प्राप्ति

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो मनुष्य इस प्रकार योग करता है, उसको कभी ना क्षीण होने वाली परमानन्द की प्राप्ति होती है। और परमात्मा सुनिश्चित करते है कि परमानन्द कभी क्षीण न हो।

इसी प्रकार अध्याय २ श्लोक ४५ में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि तुम परमानन्द प्राप्ति की कामना भी मत करो। केवल योग के लिए साधना करो। वह तो निश्चित रूप से स्वतः ही प्राप्त होगा और कभी क्षीण भी नहीं होगा।

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय