भावार्थ:
जो मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि में ममता, अहंता और आसक्ति का त्याग करके, केवल परमात्मा की महत्ता रखता हैं, वह परमात्मा का अनन्य भक्त हैं।
अनन्य भक्त संसार के विषयों का चिन्तन नहीं करता। वह केवल परमात्मा का ही चिन्तन करता है।
कर्त्तव्यों का पालन करना और जीवन निर्वाह के लिये जो प्राप्त हो उसको परमात्मा का प्रसाद मान कर ग्रहण करना, परमात्मा की उपासना है।
अनन्य भक्त होना, परमात्मा का चिन्तन करना और उनकी उपासना करना, यह सब योग की साधना है। योग साधना का फल है:
भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो मनुष्य इस प्रकार योग करता है, उसको कभी ना क्षीण होने वाली परमानन्द की प्राप्ति होती है। और परमात्मा सुनिश्चित करते है कि परमानन्द कभी क्षीण न हो।
इसी प्रकार अध्याय २ श्लोक ४५ में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि तुम परमानन्द प्राप्ति की कामना भी मत करो। केवल योग के लिए साधना करो। वह तो निश्चित रूप से स्वतः ही प्राप्त होगा और कभी क्षीण भी नहीं होगा।
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