श्रीमद भगवद गीता : २३

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।९-२३।।

 

हे कुन्तीनन्दन! जो भी मनुष्य श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी अविधिपूर्वक मुझे ही पूजते हैं। ।।९-२३।।

भावार्थ:

जो मनुष्य सकाम भाव से अपनी-अपनी, श्रद्धा भक्ति के अनुसार अपनेअपने इष्ट देवताके नियमोंको धारण करते हैं। इन देवताओंकी कृपासे ही हमें सब कुछ मिल जायगा– ऐसा समझकर नित्य-निरन्तर देवताओं की ही सेवा-पूजा करते हैं वह भी परमात्मा कि ही पूजा है ।

परन्तु वह पूजा रूप कार्य अविधिपूर्वक है। कारण कि वह स्वयं की कामना पूर्ति के लिये है,  समाज सेवा- कल्याण के लिये नहीं।

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