श्रीमद भगवद गीता : २४

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ।।९-२४।।

 

क्योंकि मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी हूँ; परन्तु वे मेरेको तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है। ।।९-२४।।

 

भावार्थ:

अध्याय ९ श्लोक १६ से अध्याय ९ श्लोक १८ तक वर्णन हुआ है कि सब कुछ परमात्मा ही है।

मनुष्य के कार्य चाहे स्वयं के कामना पूर्ति के लिये हो या समाज कल्याण के लिये,  वह है तो प्रकृति रूप में परमात्मा ही।

इसलिये भगवान्  श्रीकृष्ण कहते है कि सम्पूर्ण यज्ञों (कार्यों) का भोक्ता और स्वामी परमात्मा ही है। क्युकि मनुष्य स्वयं को कर्ता मानता है और प्राप्त परिस्थिति- पदार्थ का भोक्ता बनता है,  इसलिये उसका पतन होता है है और समता को प्राप्त नहीं होता।

कोई किसीको दान देता है, तो दान लेने वाले के रूपमें मेरा ही अभाव दूर होता है, उससे मेरी ही सहायता होती है। कोई तप करता है, तो उस तपसे तपस्वीके रूपमें मेरेको ही सुख-शान्ति मिलती है। कोई किसीको भोजन कराता है, तो उस भोजनसे प्राणोंके रूपमें मेरी ही तृप्ति होती है।

कोई पेड़-पौधोंको खाद देता है,उनको जलसे सींचता है तो वह खाद और जल पेड़-पौधोंके रूपमें मेरेको ही मिलता है और उनसे मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसी दीनदुःखी, अपाहिजकी तन-मन-धनसे सेवा करता है तो वह मेरी ही सेवा होती है।

जो भी कर्तव्य कर्म किये जायँ, उन कर्मों का और उनके फलों का भोक्ता मैं ही हूँ, तथा सम्पूर्ण सामग्री का मालिक भी मैं ही हूँ। परन्तु जो मनुष्य इस तत्त्वको नहीं जानते, वे तो यही समझते हैं कि हम जिस किसीको जो कुछ देते हैं, खिलाते हैं, पिलाते हैं, वह सब उन-उन प्राणियों को ही मिलता है। जैसे, हम यज्ञ करते हैं, तो यज्ञ के भोक्ता देवता बनते हैं। दान देते हैं, तो दानका भोक्ता वह लेनेवाला बनता है।

कुत्तोको रोटी और गायको घास देते हैं, तो उस रोटी और घासके भोक्ता कुत्ता और गाय बनते हैं। हम भोजन करते हैं, तो भोजनके भोक्ता हम स्वयं बनते हैं, आदि-आदि। तात्पर्य यह हुआ कि वे सब रूपोंमें मेरे को न मान कर अन्यको ही मानते हैं, इसी से उनका पतन होता है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह किसी अन्य को भोक्ता और मालिक न मानकर केवल मेरेको ही भोक्ता और मालिक माने अर्थात् जो कुछ चीज दी जाय, उसको मेरी ही समझकर मेरे अर्पण करे।

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय