श्रीमद भगवद गीता : २५

यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।९-२५।।

 

(सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोड़नेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं। ।।९-२५।।

 

भावार्थ:

भोग और ऐश्वर्यको चाहनेवाले पुरुष वेदों और शास्त्रोंमें वर्णित नियमों, व्रतों, मन्त्रों, पूजनविधियों आदिके अनुसार अपनेअपने उपास्य देवताओं का पूजन करते हैं।

लौकिक सिद्धि चाहनेवाले मनुष्य पितरोंके व्रतोंका, नियमोंका, पूजन-विधियोंका पालन करते हैं और पितरोंको अपना इष्ट मानते हैं।

तामस स्वभाववाले मनुष्य सकामभावपूर्वक भूतप्रेतोंका पूजन करते हैं और उनके नियमोंको धारण करते हैं।

इस प्रकार नियमों का पालन और पूजन करने से देवता,  पितर, भूत प्रेत,  अपनी यथा शक्ति,  सामर्थ्य के अनुसार विनाशी भोग प्रदान करते हैं।  प्राप्त भोगों को भोगने से अन्त: करण मे विषमता बनी रहती हैं,  सुख दुःख का बन्धन बना रहता है।

जो साधक अनन्य भाव से परमात्मा का चिन्तन करता हुआ, भक्ति पूर्वक, निष्काम भाव से समाज कल्याण के लिये ही सारे कार्य करता है, वह समता को- परमात्मा को प्राप्त होता है।

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