श्रीमद भगवद गीता : २६

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।९-२६।।

 

जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य प्राप्त वस्तु) को भक्तिपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस शुद्ध मन भक्तके द्वारा अर्पण किये हुए पदार्थ को मैं ग्रहण कर लेता हूँ। ।।९-२६।।

भावार्थ:

साधक को प्रकृत्ति से जो कुछ भी प्राप्त है, उसको पुनः भक्ति पूर्वक प्रकृत्ति कल्याण के लिये लगा देना परमात्मा को अर्पण करना है।

यहाँ पत्र, पुष्प, फल , जल आदि से तात्पर्य अनायास यथासाध्य प्रकृत्ति से प्राप्त वस्तु, परिस्थिति से है। अर्थात  जो कुछ,  जितना भी, जेसा भी मनुष्य को प्राप्त है, वह सब प्रकृत्ति के लिये लगा देना।

जिसका अन्तःकरण भगवान्में तल्लीन हो गया है, जो केवल भगवान्के ही परायण है, ऐसे भक्त के द्वारा प्रकृत्ति के लिए किया गया कार्य परमात्मा को ही प्राप्त होता है और साधक को समता की प्राप्ति होती है।

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय