भावार्थ:
‘यदश्नासि’ : इस पदके अन्तर्गत सम्पूर्ण शारीरिक क्रियाएँ आ जाती है। मनुष्य जो भोजन करता है, जल पीता है, ओषधि-सेवन करता है, कपड़ा पहनता है, शरीर की रक्षा करता है।
‘यज्जुहोषि’ : इस पदमें यज्ञ-सम्बन्धी सभी क्रियाएँ आ जाती हैं अर्थात् वो कार्य जिनके द्वारा मनुष्य कुछ उत्पति करता है।
‘ददासि यत्’ : इस पद में दूसरों को देने वाली सेवाएं आ जाती है। अर्थात् दूसरोंकी सेवा करना, दूसरोंकी सहायता करना, दूसरोंकी आवश्यकता-पूर्ति करना है।
‘यत्तपस्यसि’ : इस पद में वो सब क्रिया आ जाती है जिसमें मनुष्य शारीरिक कष्ट को सह कर, इन्द्रियों को संयमित कर, अथवा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंको प्रसन्नतापूर्वक सहता है और कार्य कर्ता है।
इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जितने भी शारीरिक, व्यावहारिक, सामाजिक, पारमार्थिक आदि कार्य है उनको तुम परमात्मा के अर्पण कर दो।
अर्थात जो भी प्राप्त है, उनको समाज कल्याण के लिए लगा दो। जो भी कार्य है उनको केवल समाज कल्याण के लिए करो।
स्वयं शरीर के लिये जो कार्य है, जेसे खाना, पीना, नित्य जीवन क्रिया, जीवन सुरक्षा आदि, वह सब भी परमात्मा के अर्पण कर दे। यहाँ इस का अभिप्राय यह है कि शरीर भी तुम्हारा नहीं है, परमात्मा का दिया है, इसलिए इस की सेवा करना तुम्हारा धर्म है।
इस श्लोक से भगवान भोग त्याग, अहंकार त्याग और ममता का त्याग करने को कहते है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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