श्रीमद भगवद गीता : ०३

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।९-३।।

 

हे परंतप! इस धर्मकी महिमापर श्रद्धा न रखनेवाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसार में रहते हैं (भ्रमण करते हैं)। ।।९-३।।

 

भावार्थ:

यह विषय जो की धर्म युक्त है उसमें श्रद्धा का भाव न रख कर इसमें दोष-दृष्टि का भाव रखे गा, वह परमात्मतत्व को प्राप्त न होकर उस मृत्युरूपी संसार को प्राप्त है जिसमें विनाश-ही-विनाश है, अभाव ही अभाव है और जन्म-मरण बना ही रहेगा।

इस श्लोक में भी का भाव नहीं है अपितु श्रेष्ठा का भाव है।

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