श्रीमद भगवद गीता : ३०

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।९-३०।।

 

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, तो वह भी साधु मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। ।।९-३०।।

 

भावार्थ:

परमात्मतत्व मनुष्य में है अथवा मनुष्य में परमात्मतत्व है।  यह भाव मनुष्य का है परमात्मा का नहीं। कारण की परमात्मा में कोई भाव नहीं।

दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी जब दुराचार का त्याग करके अनन्यभावसे परमात्मतत्व चिंतन करता है और मनुष्य धर्म का पालन करता है तो स्वतः ही उसका अन्तः करण निर्मल हो जाता है और वह (योग आरूढ़) साधु मानना चाहिये। कारण की उसमें योग आरूढ़ होने का निश्चय दृढ़ है।

इस का अर्थ यह नहीं है की पूर्व काल में किये गए दुराचारी कार्यों का पाप फल उसको प्राप्त नहीं होगा। अवश्य होगा, परन्तु योग आरूढ़ होने से प्रतिकूल फल अब उसको प्रभावित नहीं करते।

क्या दुराचार से ग्रसित अन्य मनुष्य उसको साधु मानेंगे? उत्तर है नहीं। अन्य मनुष्य उस पर प्रतिवार भी करगे, परन्तु पूर्व में दुराचारी अब साधक उस प्रतिवार को परमत्मा का प्रशाद मान कर सहन करेगा।

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