श्रीमद भगवद गीता : ३१

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।९-३१।।

 

 

हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त का विनाश (पतन) नहीं होता। ।।९-३१।।

भावार्थ:

धर्म पूर्ण कार्य करने से दुराचारी शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है। अब उसके सब कार्य अन्यों के कल्याण के लिये होते है, इसलिये उसको शाश्वत शान्ति (समता) की प्राप्ति होती है।

भगवान श्रीकृष्ण पुनः विश्वास दिलाते है कि जो मनुष्य योग आरूढ़ होता है उसका पतन नहीं होता, उसका कल्याण निश्चित है।

यहाँ भक्ति का अर्थ योग आरूढ़ होना है, पूजा, जप तप नहीं है।

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