श्रीमद भगवद गीता : ३३

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।।९-३३।।

 

पुण्यशील ब्राह्मण और राजर्षि (ऋषि श्रेष्ठ) भक्तजन तो परम गति को प्राप्त होते ही हैं; (इसलिए) इस अनित्य सुखलोक का त्याग कर तुम भक्तिपूर्वक मेरा भजन करो। ।।९-३३।।

 

भावार्थ:

जब वर्तमानमें पाप करनेवाला दुराचारी भी योग आरूढ़ होने पर कल्याण को प्राप्त होते है। तो फिर ब्रहा में रमण करने वाले अथवा पवित्र क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाला योग आरूढ़ होगा तो वह परमगतिको प्राप्त न हो, ऐसा प्र्शन तो होता ही नहीं।

 

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