श्रीमद भगवद गीता : ०५

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।९-५।।

 

मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग-(सामर्थ्य-) को देख! सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला और उनका धारण, भरण-पोषण करनेवाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है। ।।९-५।।

भावार्थ:

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते है कि यह अत्याधिक विचित्र बात है की परमात्मतत्व सम्पूर्ण सृष्टि को धारण करता है, उसी से सम्पूर्ण पदार्थ-प्राणियों की उत्त्पति होती है, भरण-पोषण होता है और विनाश होता है। फिर भी परमात्मतत्व में किसी प्रकार की क्रिया नहीं, विकार नहीं है। यह एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति है, ऊर्जा है जिस से यह सृष्टि स्वतः ही क्रियाशील जान पड़ती है।

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