श्रीमद भगवद गीता : ४१

अन्तःकरण को नियमित कर पापी कामना को बलपूर्वक मारना अनिवार्य है।

 

 तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ।।३-४१।।

 

इसलिये हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! तुम सबसे पहले अन्तःकरण के भाव को नियमित करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी कामना को अवश्य ही बलपूर्वक मार डालो। ||३-४१||

 

भावार्थ:

अध्याय ३ श्लोक ७ एवं अध्याय ३ श्लोक २१ में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘श्रेष्ठ मनुष्य’ कौन होते है और उनका आचरण केसा होता है उसको परिभाषित किया है। इस श्लोक में अर्जुन को श्रेष्ठ मनुष्य मानते हुए कहते है कि हे अर्जुन तुम इन्द्रियों के विषय को लेकर, अन्तःकरण में जो प्रियता है, राग-द्वेष है, उसका तुम विचार पूर्वक त्याग करो। अन्तःकरण के भाव को नियमित करो। तभी तुम महान पापी कामना का वध कर सकते हो, अन्यथा यह कामना तुम्हारे ज्ञान-विज्ञान का नाश कर देगी।

इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष होने के कारण मनुष्य की कार्य में प्रवृति-निवृति होती है (अध्याय ३ श्लोक ३७)। अन्तःकरण को नयमित में करने का तातपर्य है, इन्द्रियों के विषय में भोग-बुद्धि से प्रवृत-निवृत न होने देना, अपितु केवल निर्वाह-बुद्धि से अथवा साधन-बुद्धि से प्रवृत होने देना। यहाँ इन्द्रियों को वश में करने का तातपर्य इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषय से हटाने से नहीं है। अध्याय ३ श्लोक ६ एवं अध्याय ३ श्लोक ७ में भी इन्द्रियों को वश में करने का तात्पर्य बताया है।

इस श्लोक में कामना को बलपूर्वक त्याग करने को कहते है। अध्याय २ श्लोक ४१ में कामना त्याग और समता प्राप्ति से लिये निश्चित बुद्धि करने को कहते है। कामना को बलपूर्वक त्याग भी बुद्धि का कार्य है।

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