इस अध्याय का आरम्भ अर्जुन के प्रश्न से होता है। अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से व्यक्त करते है कि आप मुझे युद्ध रूपी घोर कर्म में क्यों लगाते हो? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये भगवान श्रीकृष्ण दो मुख्य कारण बताते है।
सर्व प्रथम – जीवन निर्वाह के लिये मनुष्य कार्य करे बिना नहीं रह सकता। जो मनुष्य अपना कल्याण की कामना रखता है, उसको कार्य करना अनिवार्य है
दूसरा – मनुष्य का जन्म इस सृष्टि चक्र में अपना योगदान दने के लिये हुआ है, जो उसका मनुष्य धर्म है। अतः भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना मनुष्य धर्म पालन करने के लिये कार्य करने के लिये कहते है।
भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि चक्र में होने वाली क्रियाओं को एक महान यज्ञ की संज्ञा देते है और कहते है कि हर मनुष्य को इस यज्ञ में अपनी मनुष्य धर्म पालन रूपी आहुति देना आवश्यक है।
मनुष्य धर्म पालन के साथ, अपना कल्याण किस प्रकार करे, इस का भी भगवान श्रीकृष्ण इस अध्याय में वर्णन करते है।
।।३-०१।। अर्जुन ने कहा: हे जनार्दन! यदि आपको यह मान्य है कि कर्म से बुद्धियुक्त साधना श्रेष्ठ है, तो फिर हे केशव! आप मुझे इस भयंकर कर्म में क्यों प्रवृत्त करते हैं?
।।३-०२।। आप इस मिश्रित वाक्य से मेरी बुद्धि को मोहितसा करते हैं। अत: आप उस एक (श्रेष्ठ मार्ग) को निश्चित रूप से कहिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।
।।३-०३।। श्री भगवान् ने कहा हे निष्पाप अर्जुन! इस लोक में मनुष्य दो प्रकारसे होनेवाली योग निष्ठा का पालन करता रहा है। उसमें ज्ञानियों की निष्ठा ज्ञानयोग (सांख्य) से और योगियों की निष्ठा कर्मयोगसे होती है।
।।३-०४।। मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना नैर्ष्कम्य को प्राप्त है और न कर्मों के त्याग से समाज कल्याण के कार्य सिद्ध होते है और न ही योग साधना के परम् फल (शान्ति) को ही प्राप्त होता है।
।।३-०५।। कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें एवम क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा परवश हुए सब प्राणियों से, प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा ही लेते हैं।
।।३-०६।। जो कर्मेन्द्रियों- (सम्पूर्ण इन्द्रियों-) को हठपूर्वक रोककर मनसे इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी कहा जाता है।
।।३-०७।। परन्तु हे अर्जुन! जो मनुष्य मनसे इन्द्रियों पर नियमन करके, आसक्ति रहित होकर कर्मेन्द्रियों (समस्त इन्द्रियों) के द्वारा कर्मयोगका आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
।।३-०८।। तू शास्त्र विधिसे नियत किये हुए कर्तव्यकर्म (कर्मयोग) कर; क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करनेसे तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
।।३-०९।। यज्ञ (कर्तव्य-पालन) के लिये किये जानेवाले कर्मोंसे अन्यत्र (अपने लिये किये जाने-वाले) कर्मोंमें (लगा हुआ) मनुष्य-समुदाय कर्मोंसे बँधता है (इसलिए) हे कुन्तीनन्दन! तू आसक्तिरहित होकर उस यज्ञ के लिये (ही) कर्तव्यकर्म कर।
।।३-१०।। प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदि काल में यज्ञ विधान सहित, प्रजा की रचना करके उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ में अपने कार्यों (कर्तव्यों) द्वारा अपने को समृद्ध करो। और इस यज्ञ से ही तुम लोगों को कर्तव्य-पालन के लिये उपयुक्त सामग्री प्राप्त हो।
।।३-११।। तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।
।।३-१२।। यज्ञ से भावित (पुष्ट) हुए देवता भी तुम लोगों को (बिना माँगे ही) यज्ञ की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं से प्राप्त हुई सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करेगा, वह देवताओं के स्वत्व को हरण करने वाला, निश्चय ही चोर होगा।
।।३-१३।। यज्ञ के अवशिष्ट को ग्रहण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष सम्पूर्ण विषमता, विकार से मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो लोग केवल स्वयं के लिये ही पकाते हैं अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पापका ही भक्षण करते हैं।
।।३-१४।। सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षासे होती है। वर्षा यज्ञसे होती है। यज्ञ कर्मोंसे निष्पन्न होता है।
।।३-१५।। कर्तव्य कर्म और उसकी विधि का ज्ञान वेदों से होता है और वेदो की उत्त्पति ब्रह्म अक्षर से हुई है, और क्रिया रूप कर्म का कारण ब्रह्म तत्व है ऐसा जान। इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्म ही यज्ञ में नित्य प्रतिष्ठित है।
।।३-१६।। हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोकमें इस प्रकार प्रवर्तित हुए सृष्टिचक्र रूपी यज्ञ का अनुवर्तन नहीं करता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है।
।।३-१७।। जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही संतुष्ट है। उस योगस्थित साधक को स्वयं के लिये कोई कार्य नहीं रहता।
।।३-१८।। योगस्थित महापुरुष का इस संसारमें कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं रहता है, तथा आत्मानुभूति में स्थित वह योगी स्वयं के लिये किसी भी वस्तु या व्यक्ति पर आश्रित नहीं होता।
।।३-१९।। इसलिये तुम निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म का भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करता हुआ योगस्थित पुरुष परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।।।३-१९।। कर्तव्य-कर्म करता आसक्तिरहित योगस्थित परमात्मा को प्राप्त होता है।
।।३-२०।। राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्तव्य कर्म के द्वारा ही परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। क्योकि तुम पुरषों में श्रेष्ठ हो, इसलिये लोकसंग्रह के लिए अपने धर्म का पालन करो।
।।३-२१।। लोकसंग्रह – श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य मनुष्य भी वैसा ही अनुसरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य भी उसका अनुसरण करते हैं।
।।३-२२।। मुझे तीनों लोकोंमें, स्वयं के लिये न तो कुछ कार्य है, न कुछ प्राप्त करनेयोग्य वस्तु, परन्तु फिर भी मैं लोकसंग्रह के लिये कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ।
।।३-२३।। हे पार्थ! यदि मैं किसी समय सावधान (तत्पर्ता) होकर कर्तव्यकर्म न करूँ तो लोकसंग्रह की बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं।
।।३-२४।। यदि मैं कर्म न करूँ, तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगे; और मैं वर्णसंकरताको करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला होऊँगा। अतः लोकसंग्रह के लिये श्रीकृष्ण कर्तव्य करते है।
।।३-२५।। हे भारत! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्तव्य कर्म को करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह के लिए उसी प्रकार कर्तव्य कर्म करे।
।।३-२६।। तत्त्वज्ञ महापुरुष, कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी मनुष्यों की बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न न करे, प्रत्युत स्वयं समस्त कर्तव्य कर्मों को सम्यक् (समुदाय) आचरण के लिये करे और उनसे भी वैसा ही कराये।।।३-२६।। तत्त्वज्ञ सम्यक् (समुदाय) लोकसंग्रह के लिये आसक्त अज्ञानी से भी कर्तव्य कराये।
।।३-२७।। सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे मनुष्य प्रकृति (त्रिगुण) के द्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अज्ञानी मनुष्य ‘मैं कर्ता हूँ’ – ऐसा मानता है।
।।३-२८।। परन्तु हे महाबाहो! गुण और कर्म-विभागको तत्त्वसे जाननेवाला बुद्धियुक्त महापुरुष ‘सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता।
।।३-२९।। प्रकृतिजन्य गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए जो अज्ञानी मनुष्य कर्तव्य कर्म करते रहते हैं। उन अपूर्ण ज्ञान वाले अज्ञानियों को पूर्ण ज्ञान प्राप्त मनुष्य विचलित न करे।
।।३-३०।। तुम विवेकवती बुद्धिके द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण करके, निराशा, ममता और संताप-रहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्म को करो।
।।३-३१।। जो मनुष्य दोष-दृष्टि से रहित (अनसूयन्त:) और श्रद्धापूर्वक मेरे इस (पूर्वश्लोकमें वर्णित) मत का सदा अनुष्ठानपूर्वक पालन करते हैं, वे कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। अर्थात कल्याण होता है।
।।३-३२।। परन्तु जो मनुष्य मेरे इस मतमें दोष-दृष्टि रकते हुए (श्रद्धा रहित) इसका अनुष्ठान नहीं करते, उन सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और अविवेकी मनुष्योंको नष्ट हुआ ही समझो।
।।३-३३।। सम्पूर्ण प्राणी प्रकृति (त्रिगुण) के अनुसार चेष्टा करता है। ज्ञानी महापुरुष भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसीका निग्रह क्या करेगा?।।३-३३।। प्राणी त्रिगुण वश कार्य करता है, कर्मों का निग्रह क्या करेगा?
।।३-३४।। प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें विघ्न डालने वाले) शत्रु हैं।
।।३-३५।।सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है।
।।३-३६।। अर्जुन ने कहा: हे वार्ष्णेय! फिर यह मनुष्य बलपूर्वक बाध्य किये हुये के समान अनिच्छा होते हुये भी किसके द्वारा प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?
।।३-३७।। श्रीभगवान् ने कहा: रजोगुण से पुष्ट हुई ‘कामना’, और उससे उत्पन्न क्रोध ही महाशना (जिसकी भूख बड़ी हो) और महापापी है, इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो।
।।३-३८।। जैसे धुयें से अग्नि और धूलि से दर्पण ढक जाता है तथा जैसे भ्रूण गर्भाशय से ढका रहता है, वैसे ही कामना के कारण ज्ञान (विवेक) आवृत होता है।
।।३-३९।। हे कौन्तेय! ज्ञानी के नित्य शत्रु कामना से, ज्ञान आवृत होने पर, कामना अग्नि के समान होती है जिसको तृप्त करना कठिन है।
।।३-४०।। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस कामना के निवास-स्थान कहे गये हैं। यह काम इन- (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि-) के द्वारा ज्ञानको आच्छादित करके देहाभिमानी मनुष्यको मोहित करता है।।।३-४०।। कामना के निवास बुद्धि, आच्छादित हो मनुष्यको मोहित करता है।
।।३-४१।। इसलिये हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! तुम सबसे पहले अन्तःकरण के भाव को नियमित करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी कामना को अवश्य ही बलपूर्वक मार डालो।
।।३-४२।। शरीर से परे (श्रेष्ठ) इन्द्रियाँ कही जाती हैं; इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है, और जो बुद्धि से भी परे है, वह है चेतन तत्व।
।।३-४३।। इस प्रकार बुद्धि से परे (शुद्ध) चेतन तत्व को जानकर बुद्धि के द्वार मन को वश में करके, हे महाबाहो! तुम इस दुर्जेय (दुरासदम्) कामना रूप शत्रु को मारो।
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