भावार्थ:
अध्याय २ श्लोक ११ से अध्याय २ श्लोक ३० तक, सम्बन्धों का त्याग और सम्बन्धों को लेकर जो सुख-दुःख है उसमे समता प्राप्ति के लिये सत-असत, शरीर-शरीरी के भेद का वर्णन हुआ। इस भेद को समझना विवेक जाग्रति की प्रक्रिया है और इसको सांख्य योग का नाम दिया गया। उसके उपरान्त अध्याय २ श्लोक ३९ से अध्याय २ श्लोक ७२ तक समता युक्त बुद्धि को प्राप्त करने के लिये योग साधना का वर्णन हुआ।
क्योकि अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहते थे, अतः वह बुद्धि को समता से युक्त करने की साधना को, ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया समझते है। साथ ही वह स्वधर्म का पालन एवं युद्ध करने को कर्म करना समझते है, जो ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया से अलग है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
मनुष्य में यह विकृति होती है कि, वह प्रश्न का उत्तर देने वाले वक्ता से, अपने प्रश्न के उत्तर में अपने विचार एवं सिद्धान्त का ही समर्थन चाहता है। यह विकृति उसमें अहंकार (की मेरा सिद्धान्त उपयुक्त है) के कारण होती है। इसी कारण, वह दोष रहित विकल्प का चयन नहीं कर पता। अर्जुन युद्ध को अधर्म रूप में देख रहे है। परन्तु अगर युद्ध करना मनुष्य का स्वधर्म है और युद्ध का कारण समाज कल्याण है, और युद्ध करने में स्वयं की कोई कामना, आसक्ति, अहंता न हो, तो वह युद्ध धर्म युक्त है। स्वधर्म (युद्ध न करना) का पालन न करना अधर्म है। धर्म और अधर्म में अन्तर क्या है इसका विवेक ही अर्जुन नहीं कर पा रहे।
मनुष्य को जब यह कहा जाता है कि कर्त्ता वह स्वयं नहीं, अपितु परमात्मा उसका कारण है, तो वह यह समझ लेता है कि क्युकि वह स्वयं कर्त्ता नहीं है इसलिए उसको कोई कार्य ही नहीं है। ऐसा विचार मनुष्य की गलत अवधारणा है।
धर्म और अधर्म में भेद क्या है, योग साधना कैसे हो, और उससे भगवत प्राप्ति किस प्रकार होती है, इन मूल विषयों के लिये श्रीमद भागवत गीता कही गई है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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