श्रीमद भगवद गीता : १०

अध्याय ३ श्लोक १०

 

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।३-१०।।

 

प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदि काल में यज्ञ विधान सहित, प्रजा की रचना करके उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ में अपने कार्यों (कर्तव्यों) द्वारा अपने को समृद्ध करो। और इस यज्ञ से ही तुम लोगों को कर्तव्य-पालन के लिये उपयुक्त सामग्री प्राप्त हो। ||३-१०||

 

श्लोक के सन्दर्भ मे:

‘यज्ञ’ क्या है

सौरमंडल, भूमण्डल (भूमण्डल मे वायु, अग्नि, जल, व्रक्ष, पशु, पक्षी, और समस्त प्रदार्थ), और नक्षत्र, इस सब घटक को मिला कर सम्पूर्ण सृष्टि प्रतिष्ठित है। इन सब घटक में कुछ न कुछ क्रियाएँ होती रहती हैं। ये क्रियाएँ – ‘क्रिया-प्रतिक्रिया’ रूप में और एक-दूसरे के प्रभाव में स्वतः ही होती रहती है। इस क्रिया-प्रतिक्रिया में हर क्रिया का आरम्भ और अंत होता है और यह आरम्भ-अंत का चक्र चलता रहता है।

हर प्राणी-पदार्थ, कई प्रकार की क्रियाओं का पुंज है। इस पुंज में भी क्रिया-प्रतिक्रिया रूप से क्रिया होती रहती है, और यह आरम्भ-अंत का चक्र चलता रहता है। ब्रम्हांड के अन्य घटक में होने वाली क्रिया, प्राणी-पदार्थ में होने वाली क्रिया को प्रभावित करती है।

जिस प्रकार चक्र रूप से क्रिया का आरम्भ-अंत है उसी प्रकार हर प्राणी-प्रदार्थ की चक्र रूप से उत्त्पति-नाश है। यह स्वतः और निरन्तर चलने वाला चक्र से ही सृष्टि चक्र रूप में गतिशील है। सृष्टि चक्र को गतिशील बनाये रखने के लिये हर प्राणी-पदार्थ में होने वाली क्रिया अनिवार्य है। अतः इस अनिवार्य क्रिया को उस प्राणी-पदार्थ का कर्तव्य भी कहा जाता है।

सृष्टि की चक्र रूप में गतिशील रहने की जा प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया को गीता में ‘यज्ञ’ पद दिया है। सृष्टि की चक्र रूप में गतिशील रहने की जा प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया को गीता में ‘यज्ञ’ पद दिया है। और हर प्राणी-पदार्थ में होने वाली क्रिया इस यज्ञ में क्रिया रूप आहुति है।

प्राणी-प्रदार्थ में होने वाली क्रिया (क्रिया-प्रतिक्रिया) एक निश्चित रूप में होती है। प्राणी-प्रदार्थ में होने वाली क्रिया के उस निश्चित रूप को उस प्राणी-प्रदार्थ का गुण अथवा प्रकृति कहते है।

इस सृष्टि में मनुष्य को बुद्धि, विवेक, कार्य करने की कुशलता और कार्य करने अथवा न करने की स्वतंत्रता विशेष रूप से प्राप्त है। मनुष्य सृष्टि से प्राप्त पदार्थों से कुछ भी रचने में सक्षम है। मनुष्य इस शक्ति का प्रयोग जीवन निर्वाह, जीवन सुरक्षा, सुविधा और सुख के लिये करता है।  इस के विपरीत पृथ्वी के अन्य प्राणी, एक परिसीमा में रह कर ही निर्धारित कार्य कर सकते है, जो मुख्यता उनके जीवन निर्वाह के लिये पर्याप्त होते है।

मनुष्य को विशेष शक्ति के साथ कुछ विशेष नियम और दायत्व भी सृष्टि से प्राप्त है, जो मनुष्य के कर्तव्य कहे गये है ।

भावार्थ:

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि सर्ग के आरम्भ में ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना कर उसको गतिशील (यज्ञ के लिये) बनाने हेतु सबका कर्तव्य कर्म (निश्चित क्रिया) निर्धारित करके मनुष्य से कहा कि तुम लोग स्वयं और पृथ्वी की सम्पदा के संरक्षण, वृद्धि और कल्याण के लिये कार्य करो और यज्ञ में अपना योगदान दो। ब्रह्माजी आश्वासन और आशीर्वाद देते हुए कहते है कि हे मनुष्य! तुम को स्वयं और पृथ्वी के संरक्षण, वृद्धि और कल्याण के लिये जो भी उपयुक्त सामग्री आवश्यक होगी वह आपको मिलती रहेगी।

इस प्रकार मनुष्य को प्राप्त विशेष गुणों के कारण यह मनुष्य का सृष्टि के प्रति दायत्व है, कर्तव्य है।

प्रायः ‘यज्ञ’ शब्दका अर्थ हवनसे हवनसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाके लिये ही प्रसिद्ध है; परन्तु गीता में ‘यज्ञ’ शब्द शस्त्र विधि से की जानेवाली सम्पूर्ण विहित क्रियाओं का वाचक है।

सनातन धर्म पालन हेतु:

अतः मनुष्य का धर्म (कर्तव्य) है पृथ्वी (पृथ्वी के समस्त जीव, जन्तु, वनस्पति, खनिज एवम अन्य पदार्थ) का संरक्षण, वृद्धि और कल्याण के लिये उनकी सेवा करना।

मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले सेवा रूपी कर्तव्य पृथ्वी, देश, समाज, परिवार को समर्पित होने चाहिये। परन्तु जब मनुष्य को इस बात का विरोधाभास हो कि, प्राप्त परिस्थिति में उसका कर्तव्य किस के प्रति अधिक है, अथवा उसको किस को अधिक प्राथमिकता देनी है, तो उसका प्राथमिकता क्रम इस प्रकार है।

मनुष्य का कर्तव्य सर्व प्रथम पृथ्वी के प्रति है।

उसके उपरांत देश के प्रति,

तत्प्रश्चात समाज के प्रति,

परिवार के प्रति,

और सबसे अंत में स्वयं के प्रति

 

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