श्रीमद भगवद गीता : ११

अध्याय ३ श्लोक ११

 

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।३-११।।

 

तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे। ||३-११||

 

श्लोक के सन्दर्भ मे:

देवी और देवता लोग कौन है ?

हमारे सत-शास्त्रः में, सृष्टि के समस्त प्राणी, प्रदार्थ को देव-देवी (दिव्यरूप) रूप में देखा जाता है। जल, वायु, पृथ्वी, ग्रह, व्रक्ष (नीम, पीपल, आम, तुलसी आदि) पशु, पक्षी, नदिया आदि सभी प्राणी, एवं प्रदार्थ दिव्यरूप में देखे और पूजे जाते है। कारण की, ये सभी सृष्टि चक्र को बनाय रखने में अपना-अपना योगदान करते हैं और मनुष्य का जीवन निर्वाह इन के सहयोग से ही होता है।

भावार्थ:

आगे ब्रह्माजी मनुष्य से कहते हैं कि तुम अपने मनुष्य धर्म का पालन करते हुए प्रकृति (संसार) के संरक्षण, वृद्धि और कल्याण हेतु उनकी सेवा करो और देवता लोग भी अपने धर्म का पालन करते हुए, जो भी सामग्री मनुष्य धर्म पालन हेतु आवश्यक है, वे तुमको प्रदान करते रहेंगे। इस प्रकार तुम एक दूसरे का सहयोग करते हुए तुम परम् कल्याण को प्राप्त होंगे।

जैसे वृक्ष, लता, आदि में स्वतः ही फल-फूल लगते हैं; परन्तु यदि मनुष्य उन्हें खाद और पानी दे और उनकी देखभाल करे तो उनमें फल-फूल विशेषता से लगते हैं। उसी प्रकार अनाज की खती करने पर प्रकृति मनुष्य के जीवन निर्वह के लिये अनाज प्रदान करती है। नदियों का जल न केवल मनुष्य के जीवन के लिये आवश्यक है, अपितु सभी प्रकार के प्राणी और वनस्पति के लिये आवश्यक है। अतः वनस्पति, नदियों का संरक्षण करना मनुष्य के लिये आवश्यक है।

 

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