श्रीमद भगवद गीता : १२

अध्याय ३ श्लोक १२

 

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।३-१२।।

 

यज्ञ से भावित (पुष्ट) हुए देवता भी तुम लोगों को (बिना माँगे ही) यज्ञ की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं से प्राप्त हुई सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करेगा, वह देवताओं के स्वत्व को हरण करने वाला, निश्चय ही चोर होगा। ||३-१२||

 

भावार्थ:

ब्रह्माजी आगे कहते है कि, मनुष्य धर्म के पालन से पुष्ट हुए देवता मनुष्य को मनुष्य के उपयोग से अधिक, बिना मांगे प्रदान करते रहगे।

परन्तु जो मनुष्य प्रकृति से प्राप्त हुई सामग्री (भोजन, वस्त्र, धन, मकान आदि) को समाज की सेवामें लगाये बिना स्वयं ही उसका उपभोग करेगा, तो वह देवताओं के स्वत्व (परोपकार) का हरण करने वाला, और निश्चय ही समाज और प्रकृति का चोर होगा।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

भूमण्डल मे पशु, पक्षी, व्रक्ष, एवं अन्य वनस्पति आदि, के कार्य केवल और केवल प्रकृति के लिय हैं। उनका कार्य करने में कोई अपना सकाम भाव नहीं है। पशु, पक्षी, आदि को जो भी खाध सामग्री प्राप्त होती है, वह उस सामग्री का प्रयोग केवल अपने निर्वाह के लिय करते है और किसी प्रकार का संग्रह नहीं करते। वे स्वयं को दूसरों के सुखमें समर्पित कर देते हैं। यद्यपि पशु-पक्षी आदिको यह ज्ञान नहीं रहता कि हम परोपकार कर रहे हैं, तथापि उन के द्वारा दूसरों का उपकार स्वतः होता रहता है।

मनुष्य को जीवन निर्वाह, और जीवन सुरक्षा के लिये अनेक प्रकार के कार्य करने की आवश्यकता होती है। उन अनेक प्रकार के कार्यों को करने के लिये मनुष्य में अनेक प्रकार की क्षमता की आवश्यकता होती है, जो सभी मनुष्यों में सामान रूप से उपलब्ध नहीं होती। कुछ मनुष्यों मे कुछ गुण (क्षमता एवं शक्ति) होता है और अन्य मे कुछ ओर। इस कारण मनुष्य समाजिक व्यवस्था में रहता है। अर्थात मनुष्य अपने-अपने गुणों के अनुसार मिल-जुल कर जीवन निर्वाह, और जीवन सुरक्षा के कार्य करते है। कार्य करने के लिये साधन सामग्री (प्राणी, वनस्पति, खनिज एवं अन्य पदार्थ) मनुष्य को प्रकृति (भूमण्डल) से प्राप्त होती है।

अतः इस समाजिक व्यवस्था में हर मनुष्य का समाज के प्रति कर्तव्य होते है, जो उनके गुणों के आधार पर निर्धारित होते है। मनुष्य का कर्तव्य यह भी होता है कि कार्य करने पर उसको जो साधन सामग्री भूमण्डल से प्राप्त होती है, वह स्वयं के साथ, समाज के अन्य लोगों के साथ भी साझा करे।

इस श्लोक में ब्रह्माजी दो बात कहते है।

पहला – वह मनुष्य को आश्वासन देते है कि प्रकृति (भूमण्डल) से उसको, उसके जीवन व्यापन के लिये पर्याप्त मात्रा में साधन सामग्री मिलती रहगी, अगर वह  उनका संरक्षण करेगा, उनकी वृद्धि के लिये कार्य करेगा और उनका प्रयोग निर्वाह मात्र के लिए करेगा। जो मनुष्य इन साधन सामग्री का संग्रह भोग के लिये करेगा, नष्ट करेगा वह देवताओं (साधन सामग्री) के परोपकार का हरण (व्यर्थ) करेगा।

दूसरा – जो मनुष्य प्रकृति से प्राप्त साधन सामग्री का उपयोग एवं संग्रह केवल अपने भोग के लिये करेगा और प्राप्त साधन सामग्री समाज को समर्पित (सेवा) नहीं करेगा वह समाज का चोर है।

अध्यात्म दृष्टि से भी देखा जाय तो मनुष्य को मनुष्य शरीर परमात्मा से प्राप्त हुआ है। मनुष्य का पालन-पोषण उसके माता-पिता द्वारा होता है। विध्या उसको गुरूजनों से मिलती है। संसार में वह जो भी कार्य करता है उसमें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से समाज के अन्य लोगो का योगदान होता है। कार्य के लिये साधन सामग्री और के फल प्रकृति से प्राप्त होता है। इस प्रकार मनुष्य के पास जो कुछ भी सामग्री – बल, योग्यता, पद, अधिकार, धन, सम्पत्ति आदि है वह सब-की-सब दूसरोंसे ही मिली है। इसलिये इनको दूसरोंकी ही सेवामें लगाना है। यही मनुष्य का परम कर्तव्य है। “मनुष्य धर्म है“।

 

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