श्रीमद भगवद गीता : १३

यज्ञ में स्वयं के लिये कर्म करने वाला पापका भक्षण करता हैं।

 

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।३.१३।।

 

यज्ञ के अवशिष्ट को ग्रहण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष सम्पूर्ण विषमता, विकार से मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो लोग केवल स्वयं के लिये ही पकाते हैं अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पापका ही भक्षण करते हैं। ||३-१३||

 

भावार्थ:

 

निष्काम भावसे मनुष्य धर्म एवं स्वधर्म का विधिपूर्वक पालन करने पर (यज्ञ में आहुति देनेपर) और प्रकृति से केवल अपने शरीर निर्वाह मात्रः के लिय ग्रहण करने पर यज्ञ सिद्ध होता है। यज्ञ सिद्धि होने पर जो मनुष्य के लिय यज्ञ शेष रहता है वह समता का अनुभव है। मनुष्य जब स्वयं का शरीर, शरीर से होने वाले कार्य, प्रकृति से और कार्य के फल स्वरूप होने वाले पदार्थ, सभी को समाज कल्याण के लिये लगा देता है तब मनुष्य के पास जो शेष बचता है, वह है समता का अनुभव। समता का अनुभव ही है परमान्द की प्राप्ति।

यज्ञशेष (समता) का अनुभव होने पर सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है और मनुष्य के जीवन में किसी भी प्रकार का बंधन नहीं रहता और वह इस जीवनकाल में ही मुक्ति को प्राप्त हो जाता हैं। उसके सम्पूर्ण (सञ्चित, प्रारब्ध और क्रियमाण) कर्म विलीन हो जाते हैं।

यहा ‘पाप’ पद में पाप और पुण्य दोनों ही आ जाते है। क्युकी यह दोनों ही मनुष्य को संसार से बांधने वाले है। कारण की पाप-कर्म तो बन्धनकारक होते ही हैं, परन्तु सकामभावसे किये गये पुण्यकर्म भी – फल जनक होने से, बन्धन कारक होते हैं।

मनुष्य का सकाम भाव (अर्थात स्वार्थ, कामना, ममता, आसक्ति एवं अपने को अच्छा कहलाने का किंचित भी भाव) से किय गय कर्म, पाप कर्म है और उस पाप कर्म से प्राप्त सामग्री को ग्रहण करना पाप का भक्षण करना है।

इस श्लोक में भगवान ने ‘अपने लिये’ कर्म करने वालों की सभ्य भाषा में निन्दा की है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

मनुष्य और विद्वानों का यह विचार रहता है की, अन्य किसी मनुष्य का अर्जित धन, सांसारिक पदार्थ को अपने प्रयोग लाना पाप है। परन्तु इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्टता से कहते है कि, जो मनुष्य केवल अपनी कामना पूर्ति, भोग एवं संग्र्ह के लिये ही सारे कार्य करता है, वह पाप को पकाता है। कार्य से प्राप्त फल को समाज के अन्य (दरिद्र, वंचित) की सेवा में न लगा कर, केवल स्वयं के भोग-संग्र्ह के लिये प्रयोग करना उस पकाय हुये पाप को खाना है।

सम्पन्न मनुष्य जब प्रकृति से प्राप्त पदार्थ का संग्र्ह करता है, तब वह पदार्थ दरिद्र लोगों के लिये उपलब्ध नहीं रहता और दरिद्र उस पदार्थ से वंचित रह जाता है। आज के समय में, देश-संसार में जो दरिद्र मनुष्य दीखते है, जिनको दो समय का भोजन भी प्राप्त नहीं है, तो उस का कारण, सम्पन्न मनुष्य के द्वारा किया हुआ संग्र्ह और अपव्यय (बर्बाद करना) है। और यह ही कारण है, देश-संसार में हो रही प्राकृतिक विपदा, महामारी, जल, वायु का दुषिकरण।

कियुकि आज के संसार में अधिकतम मनुष्य पाप को पका रहे है और खा रहे है, इसलिये हर व्यक्ति सोचता है, की ऐसा करना ही सही है, जिसके कारण वह ओर अधिक पाप का आचरण करता है। मनुष्य की कम होती आयु, बढ़ती बीमारियाँ, आत्महत्या आदि का कारण मनुष्य का पाप आचरण ही है। मनुष्य के लिये जीवन निर्वाह के लिये पर्याप्त है, परन्तु दूसरों से पतिस्पर्धा और ईर्ष्या के कारण स्वयं में आभाव अनुभव करता है

सनातन धर्म पालन हेतु:

मनुष्य के पास शरीर, योग्यता, पद, अधिकार, विध्या, बल आदि जो कुछ है, वह सब प्रकृति से मिला है। इसलिये जो कुछ भी प्राप्त है, वह अपना और अपने लिये नहीं है, प्रत्युत प्रकृति की सेवाके लिये है।

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