भावार्थ:
भगवान श्री कृष्ण, अध्याय ३ श्लोक १० में वर्णन करते है कि सृष्टि का चक्र रूप में गतिशील रहना ‘यज्ञ’ है। मनुष्य का योगदान इस यज्ञ (सृष्टि चक्र) में किस प्रकार हो, और क्यों हो, इसका वर्णन अध्याय ३ श्लोक ११ एवं अध्याय ३ श्लोक १२ में करते है। मनुष्य द्वारा, यज्ञ के लिये दिया जाने वाला योगदान ही मनुष्य धर्म, स्वधर्म है, ऐसा वर्णन अध्याय ३ श्लोक ९ में करते है।
अब इस श्लोक में सृष्टि किस प्रकार गतिशील है इसका वर्णन किया गया है।
जिस खाद्य सामग्री को ग्रहण करने से प्राणी के शरीर की उत्पति, भरण-पोषण होता है, उस खाद्य सामग्री को उस प्राणी के लिये ‘अन्न’ नामसे कहा गया है। ग्रहण किया हुआ अन्न, रक्त और वीर्य के रूप में परिणत होने पर, उससे प्राणी का जन्म होता है। अतः प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं।
अन्न की उत्पति का मूल कारण है – जल। वनस्पति (अनाज, फल, सब्जी आदि) तो जल से होते ही हैं, मिट्टी के उत्पन होने में भी जल ही कारण है। वनस्पति, एवं प्राणी नष्ट होने के बाद, गल-सड़ के मिट्टी ही बनते है।
जल का आधार वर्षा है। वर्षा के बिना न तो वनस्पति की वृद्धि होगी और न प्राणियों का जीवन ही सम्भव होगा।
और वर्षा का आधार सृष्टि का चक्र रूप में गतिशील (जल का भाप बन कर बादल बनना, और बादल से वर्षा होना) रहना है। अर्थात ‘यज्ञ’ है।
यज्ञ – सृष्टि में हो रही क्रिया और मनुष्य द्वारा, मनुष्य धर्म पालन हेतु, हो रही क्रिया (कर्मों) से सम्पन्न होता है।
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