भावार्थ:
मनुष्य को अपने मनुष्य धर्म (कर्तव्य कर्म) का ज्ञान और कर्तव्य कर्म करने की विधि वेदों से प्राप्त होती है।
वेदों का पर्दुभाव ब्रह्मा (परमात्मतत्व) से हुआ है और सृष्टि की उत्त्पति और गतिशील रहने का कारण ब्रह्मा (परमात्मतत्व) है। अतः ब्रह्मा (परमात्मतत्व) सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ में नित्य प्रतिष्ठित है। क्रिया भी वह है और कारण भी वह है।
श्लोक का परिपेक्ष्य:
प्रायः ‘यज्ञ’ शब्दका अर्थ हवनसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाके लिये ही प्रसिद्ध है; परन्तु गीतामें ‘यज्ञ’ शब्द शस्त्रविधिसे की जानेवाली सम्पूर्ण विहित क्रियाओंका वाचक है। अपने वर्ण, आश्रम, धर्म, स्वभाव, देश, काल आदिके अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म ‘यज्ञ’ के अन्तर्गत आते हैं। दुसरे के हित के लिये किये जानेवाले सब कर्म भी ‘यज्ञ’ ही हैं।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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