श्रीमद भगवद गीता : १६

सृष्टिचक्र का अनुवर्तन न करने वाला अघायु व्यर्थ ही जीता है

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।।३.१६।।

 

हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोकमें इस प्रकार प्रवर्तित हुए सृष्टिचक्र रूपी यज्ञ का अनुवर्तन नहीं करता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है। ||३-१६||

भावार्थ:

‘मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हो?’ – अर्जुन के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने इस श्लोक में सृष्टि-चक्र की सुरक्षा के लिये यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) करने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है।

जो मनुष्य अध्याय ३ श्लोक १० से अध्याय ३ श्लोक १५ में वर्णित सृष्टिचक्र के नियम का पालन (अनुवर्तन) नहीं करता (मनुष्य धर्म, स्वधर्म का पालन नहीं करता), वह समष्टि सृष्टि के संचालन में बाधा डालता है, सृष्टि के संचालन में बाधा पड़ने से सृष्टि का संतुलन क्षय होता है और प्रकृति में अनेक प्रकार की आपदाय उत्तपन्न होती है।

जो मनुष्य कामना, ममता, आसक्ति आदि से युक्त होकर इन्द्रियों के द्वारा भोग भोगता है, उसे गीता में ‘इन्द्रियाराम‘ (भोगों में रमण करने वाला) कहा गया है।

अपने धर्म का पालन न करके जो मनुष्य भोगों में ही रमण करता है वह नित्य नये-नये पाप करके पतनकी ओर जाता है और संसार में व्यर्थ ही जीता है।

कारण कि स्वार्थी, अभिमानी, इन्द्रियाराम, संग्रह करने वाला, सृष्टि में बाधा डालने वाला मनुष्य पशु के समान हिंसक और दूसरों का अहित  करने वाला ही है।

मनुष्य धर्म का पालन न करने वाले को इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कठोर भाषा में “संसार में व्यर्थ ही जीता है” से निन्दा करते है। इससे पूर्व अध्याय ३ श्लोक १२ में “वह चोर ही है” और अध्याय ३ श्लोक १३ में “वे तो पापको ही खाता हैं” इस प्रकार मनुष्य की ताड़ना करते है।

सनातन धर्म पालन हेतु:

सृष्टि के अति सूक्षम अंश – ‘मनुष्य’ का जीवन उद्धेश्य सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ में अपनी क्रिया रूपी आहुति देना है। सृष्टि चक्र का अनुसरण करते हुए अपने मनुष्य धर्म का पालन निश्चित रूप से करना है, अन्यथा उसका जीवन व्यर्थ है। संसार में रहते हुए मनुष्य को जो भी प्राप्त होता है उसको समाज की सेवा में लगा देना है। स्वयं के भोग के लिये प्रयोग में नहीं लाना है। अन्यथा मनुष्य चोर की श्रेणी में आता है। मनुष्य के सभी कार्य समाज सेवा के लिये होने चाहिये। जो स्वयं की कामना पूर्ति के लिये कार्य करता है और प्राप्त फल को भोगता है, वह पाप को पकाता है और पाप को खाता है।

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